COVID-19 व आदिवासियों की तन्यकता एवं विश्व मूलनिवासी दिवस
करीब 90 देशों में 476 मिलियन मूलनिवासी लोग विश्व भर में निवास करते हैं जो विश्व की जनसंख्या के जनसंख्या के 5% से भी कम हैं लेकिन यह दुर्भाग्य है कि दुनिया के सबसे गरीब लोगों में उनका प्रतिशत 15 तक है। 5000 विभिन्न संस्कृतियों और 7000 भाषाओं को बोलने वाले मूलनिवासी समुदाय आज दुनिया भर में संकट का सामना करना कर रहे हैं ,वे अपनी सामाजिक ,सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक विशेषताओं जो कि उनके समाजों को अन्य से अलग करती है आज काफी संकट में है। आदिवासी समुदाय विश्वभर में एक जैसी समस्याओं का सामना कर रहे है। आधुनिकीकरण के कारण दुनिया भर में मूल निवासियों को उनके पुराने परंपरागत भूमि संसाधनों टेरिटरीज और उन संसाधनों से जिनकी उन्होंने सदियों से रक्षा की है खदेड़ा जा रहा है। आज के समय में विश्व में मूलनिवासी समुदाय सबसे वंचित समूहो में आते हैं और अब इसे विश्व समुदाय ने अनुभव किया है कि इनकी इस संकटग्रस्त संस्कृति और धरोहर को बचाने का प्रयास करना चाहिए और उनके अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए जिसको वह सदियों से जीते आ रहे हैं ।इसी क्रम में संयुक्त राष्ट् संघ द्वारा 1994 से प्रत्येक वर्ष 9 अगस्त को विश्व मूलनिवासी निवासी दिवस मनाया जा रहा है। हम सब जानते हैं कि दुनिया इस वर्ष कोरोना महामारी से जूझ रही है और हम यह भी जानते हैं कि यह महामारी पर्यावरण में मानवीय हस्तक्षेप के कारण पैदा हुई है। आदिवासी समुदाय ऐसी महामारियों से सदियों से सफलतापूर्वक लड़ते आए हैं और यह तथ्य हम उनके अस्तित्व से व उनके रीतिरिवाजों व संस्कृति से जान सकते हैं।मूलनिवासी समुदायों में एक गजब का लचीलापन है ,एक तन्यकता है जो डार्विन के योग्यतम की उत्तरजीविता के सिद्धांत के अनुरूप है और इसी लचीलेपन व पर्यावरण के अनुसार अपने आप को ढाल लेने की विशेषता के कारण ही ऐसी कोरोना जैसी विपदाओं का सामना मूलनिवासी समुदायों ने हर बार सफलतापूर्वक किया है ।आदिवासियों का परंपरागत ज्ञान और प्रकृति से उनका रिश्ता हम सब बखूबी जानते हैं ।आदिवासियों ने सदा ही पर्यावरण की रक्षा की है और उसे संजोकर रखा है। आदिवासी जिन क्षेत्रों में रहते हैं उन क्षेत्रों में दुनिया की 80 प्रतिशत बायोडाइवर्सिटी का निवास है । इसी तथ्य से पता चलता है कि किस तरह पर्यावरण के संरक्षण में आदिवासी मूलनिवासी समुदायों का योगदान सर्वोच्च स्थान पर रहा है ।इस वर्ष की इस दिवस की थीम आदिवासी दिवस के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने “कोविड-19 व आदिवासियों की तन्यकता” या लचीलापन तय की है जिसका निहितार्थ है कि आज पूरी दुनिया कोरोना महामारी के संकट को झेल रही है ऐसे में सबसे ज्यादा हमे मूलनिवासी समुदायों से सीखना चाहिए कि कैसे वे अपने परंपरागत ज्ञान का स्तेमाल कर इस महामारी से भी लड़ रहे हैं लेकिन आज आधुनिकीकरण से उन्हें खतरा उत्पन्न हुआ है जिसके कारण यदि कोरोना संकट किन्हीं समुदायो को अधिक नुकसान पहुंचा सकता है तो वे आदिवासी समुदाय है क्योंकि आज वे गरीबी, अभाव और सुविधाओं से वंचित स्थानों पर रह रहे हैं । उनके जल, जंगल और जमीन को औद्योगिकरण व शहरीकरण ने उनसे छीन लिया है । संसाधनों की कमी व गरीबी से जूझते मूलनिवासी लोग आज कुपोषण का शिकार हैं और इसके कारण उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता में भारी कमी हो गई है जिसके कारण कोरोना जैसी महामारी की चपेट में आने से उनको ज्यादा खतरा है।
हम पहले से ही जानते हैं कि ऐसी बहुत सी जनजातियां मूलनिवासियों की है जो या तो लुप्त हो गई है या विलुप्त होने के कगार पर हैं ।आज यदि हमें पर्यावरण की रक्षा करनी है और आदिवासी समुदाय की धरोहर को बचाना है तो सबसे ज्यादा जरूरत है हमें कोरोना महामारी से भी उन्हें बचाने की ।कोरोना महामारी से बचने के लिए जो स्वच्छता और निवारक वस्तुएं चाहिए जैसे साबुन,स्वच्छ पानी, सैनिटाइजर ,मेडिकल सुविधाएं व अन्य उपकरण वे आदिवासी मूलनिवासी इलाकों में आसानी से उपलब्ध नहीं है जिस कारण इन समुदायों को सबसे ज्यादा खतरा है । हां यह जरूर है कि आदिवासी समुदाय सदियों से सोशल डिस्टेंसिंग और भीड़ में रहने से बचते आए हैं वे जानते हैं कि किस तरह से महामारी जैसी स्थितियों में अपने समुदाय व अपने कबीले की रक्षा की जाती हैं। शायद ही उनसे बेहतर कोई प्रकृति के बारे में जानता हो। आज हम भीड़भाड़ वाले इलाकों में शहरों में रहते हैं जबकि आदिवासी समुदाय जंगलों में जड़ी बूटियों का सेवन करते हुए अपने परंपरागत ज्ञान के आधार पर अपना इलाज करते हैं जिसके कारण वे अपने आप को बचाने में सक्षम भी रहते हैं लेकिन आज औद्योगिकरण और पूंजीवाद का साया आदिवासियों मूलनिवासी समुदायो के ऊपर भी मंडरा रहा है ऐसी स्थिति में बाजारीकरण ,शहरीकरण व औद्योगिकरण और पर्यावरण प्रदूषण के कारकों से मूलनिवासी समुदाय अछूते नहीं हैं और इसी कारण उनको बहुत सारी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। आदिवासी समुदाय अपने कबीलों में अपने साथ अपने बुजुर्गों को भी रखते हैं जिस कारण इन लोगों को कोरोना से बहुत ज्यादा खतरा है ।बहुत सारे आदिवासी समुदायों में डायबिटीज जैसी शहरी बीमारियों ने घर कर लिया है जैसा कि अभी ब्राजील के आदिवासी समुदायों में पाया गया हैं । कुपोषण व टीबी जैसी बहुत सारी बीमारियों से उनका सामना हो रहा है जिसके कारण उनके अस्तित्व पर संकट खड़ा हो गया है । आज इस दिवस पर हम ऐसी व्यवस्था का संकल्प लें सकते है कि आदिवासी समुदायों को कोरोना के महामारी के प्रभाव से कैसे बचाया जाये ? इसके लिए उन्हें ज्यादा से ज्यादा सुविधाएं प्रदान करने का प्रयास हमे करना होगा। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार 86 प्रतिशत से अधिक मूलनिवासी दुनिया भर में अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा है जबकि इसकी तुलना में मूलनिवासीयो के अलावा लोगो में यह प्रतिशत 66 ही है। मूलनिवासी समुदाय सामान्य समुदाय के लोगों से 3 गुना अधिक भयंकर गरीबी में जीते हैं और वैश्विक रूप से 47 प्रतिशत मूलनिवासी जो रोजगार में है उनको कोई शिक्षा उपलब्ध नहीं है। जबकि अन्य लोगों में यह प्रतिशत केवल 17 है, और यह अंतर भी महिलाओं के मामले में और ज्यादा है जो निश्चित ही चिंता का विषय है।