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Home»Biography»सुधा मूर्ति, जिनके दिए 10000 रुपए से खड़ा हुआ Infosys का साम्राज्य! | सुधा मूर्ति बायोग्राफी।
Biography

सुधा मूर्ति, जिनके दिए 10000 रुपए से खड़ा हुआ Infosys का साम्राज्य! | सुधा मूर्ति बायोग्राफी।

By Archana DwivediUpdated:March 30, 2021
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सुधा कुलकर्णी एक ऐसी महिला है, जिन्होने विश्व स्तर पर महिला होकर भी एक अद्वितीय स्थान हासिल किया है। ये भारत की एक बड़ी कंपनी इन्फोसिस की संस्थापिका है। इन्फोसिस लिमिटेड एक बहुराष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी सेवा कंपनी मुख्यालय है। जो बेंगलुरु, भारत में स्थित है। यह एक भारत की सबसे बड़ी आईटी कंपनियों में से एक है। जिसके पास 30 जून 2008 को 94,379 से अधिक पेशेवर हैं। इसके भारत में 9 विकास केन्द्र हैं और दुनिया भर में 30 से अधिक कार्यालय हैं।

प्रारंभिक जीवन-

सुधा कुलकर्णी मूर्ति का जन्म डॉ. आर.एच. कुलकर्णी और विमला कुलकर्णी के लिए कर्नाटक के शिगगाँव में हुआ था। सुधा मूर्ति ने B.V.B कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में बीई किया था। उसने अपनी कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया। और तत्कालीन कर्नाटक के मुख्यमंत्री श्री देवराज उर्स से स्वर्ण पदक प्राप्त किया। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद, उन्होंने भारतीय विज्ञान संस्थान से कंप्यूटर विज्ञान में एम.ई. उसने प्रथम स्थान पर आने के लिए भारतीय इंजीनियर्स संस्थान से स्वर्ण पदक प्राप्त किया

व्यक्तिगत जीवन-

पुणे में टेल्को में काम करने के दौरान, वह अपनी आत्मा साथी श्री नारायण मूर्ति से मिलीं और उन्होंने शादी कर ली। उनके दो बच्चे हैं अक्षता और रोहन। वह इंफोसिस फाउंडेशन की सफलता के लिए स्तंभ हैं। वह अभी भी कंपनी बनाने के लिए अपने पति के साथ जुड़ी हुई है। प्रसिद्ध संगणक क्षेत्र के व्यावसायिक और इन्फोसिस इस प्रसिद्ध संस्था के सह संस्थापक एन.आर.नारायणमूर्ती ये उनके पति है।

वे कॅलटेक (अमेरिका) इस प्रसिद्ध कंपनी के वैज्ञानिक श्रीनिवास कुलकर्णी इनकी और जयश्री कुलकर्णी-देशपांडे (प्रसिद्ध अमेरिकन व्यावसायिक गुरुराज देशपांडे की पत्‍नी) इनकी बहन है। सुधा मूर्ती ने नौ से ज्यादा उपन्यास लिखे है। उनके नाम पर अनेक कथासंग्रह हैं।

इनकी उपलब्धियां व प्रमुख कार्य-

शैक्षणिक अर्हता बी.वी. ब. कॉलेज ऑफ इंजिनीअरिंग यहाँ से बी. ई इलेक्ट्रिकल पदवी प्राप्त की। इंडियन इन्स्टिट्यूट ऑफ साइंस यहाँ से एम. ई. (संगणक शास्त्र) कॉम्प्युटर साइन्स इस विषय में एम्. टेक. यह पदवी प्राप्त की है। काम का अनुभव सुधा मूर्ती मराठी, कन्नड और अंग्रेज़ी भाषा में लिखती है। सुधा मूर्ती ने संगणक वैज्ञानिक और अभियंता से अपने करिअर की शुरुआत की। टेल्को इस कंपनी में चुनी गई वह पहली महिला अभियंत्या थी। पुणे, मुंबई और जमशेदपुर यहाँ उन्होंने काम किया। ख्राईस्ट कॉलेज यहाँ उन्होंने प्राध्यापिका के पद पर काम किया। बंगलोर विश्वविघालय में वे अभ्यागत प्राध्यापिका के रूप में काम कर रही हैं। इन्फोसिस इस संस्था के कार्य में उनका विशेष सहभाग है। इस संस्था की विश्वस्त के रूप में वे कार्यरत है।

सामाजिक योगदान वह विख्यात सामाजिक कार्यकर्ता और कुशल लेखिका है। 19 इन्फोसिस फाउंडेशन इस एक सामाजिक कार्य करनेवाली संस्था की निर्मिती में उनका सक्रिय सहभाग था। वह इस संस्था की सह-संस्थापिका भी है।इन्फोसिस फाउंडेशन के माध्यम से मूर्ती इन्होंने समाज के विविध क्षेत्राें में विकास काम को प्रोत्साहन दिया। कर्नाटक सरकार की सभी पाठशालाओं में उन्होंने संगणक और ग्रंथालय उपलब्ध करा दिए है। मूर्ति जी ने क्लासिकल लायब्ररी ऑफ इंडिया इस नाम का ग्रंथालय उन्होंने हार्वर्ड विश्वविघालय शुरू किया है। कर्नाटक के ग्रामीण भाग में और बैंगलोर शहर और परिसरात उन्होंने लगभग 10,000 शौचालय संस्था के माध्यम से बांधी है। तमिलनाडु और अंडमान यहाँ सुनामी के समय उन्होंने विशेष सेवाकार्य किया। महाराष्ट्र में हुए सूखे से ग्रस्त भागाें के लोगों को भी संस्था ने मदद की थी।

इन्होंने अनेक ऐसे ग्रंथो की रचना की जो महिलाओं को प्रेरणा देते है विशेष कर महिलाओं को । क्योंकि वे खुद एक ऐसी महिला थी जिन्होंने अनेक चुनोतियों व संघर्षों के सामना करके एक मिसाल कायम की है । सुधा जी की कुछ प्रमुख रचनाये –

  • डॉलर बहू (इंग्रजी), (मराठी)
  • तीन हजार टाके (मूळ इंग्रजी, थ्री थाउजंड स्टिचेस मराठी अनुवाद लीना सोहोनी)
  • थैलीभर गोष्टी
  • परिधी (कन्नड)
  • परीघ (मराठी)
  • पितृऋण
  • पुण्यभूमी भारत
  • द मॅजिक ड्रम अ‍ॅन्ड द अदर *फेव्हरिट स्टोरीज (अंग्रेजी)
  • महाश्वेता (कन्नड व अंग्रेजी)
  • वाइज अ‍ॅन्ड अदरवाइज (अंग्रेजी), (मराठी)

पुरस्कार और सम्मान –

  • 1995 में उत्तम शिक्षक पुरस्कार (बेस्ट टीचर अवोर्ड )
  • 2001 में ओजस्विनी पुरस्कार * 2006- भारत सरकारने पद्मश्री पुरस्कार देकर गौरवान्वित किया। 2006 में साहित्य के क्षेत्र में योगदान के लिए आर. के. नारायण पुरस्कार
  • श्री राणी-लक्ष्मी फाऊंडेशन की ओर से 19 नवंबर, 2004 को राजलक्ष्मी पुरस्कार।
  • 2010 – एम.आय.टी.कॉलेज की ओर से भारत अस्मिता राष्ट्रीय पुरस्कार।
  • सामाजिक काम के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान सत्यभामा पुरुस्कार ।

एन नारायण मूर्ति जी से पहली मुलाकात व प्रेम प्रसंग –

आज इंडिया मित्र आपको देश की सबसे बड़ी आईटी कंपनी ‘इन्फोसिस’ के मालिक नारायण मूर्ति और उनकी पत्नी सुधा मूर्ति की प्रेम कहानी के बारे में बताएगा।

सुधा और नारायण की लव स्टोरी पुणे स्थित टाटा इंजीनियरिंग एंड लोकोमोटिव कंपनी (TELCO) से शुरू हुई। दोनों यहीं काम करते थे।

सुधा को किताबों का शौक था और वह अपने दोस्त प्रसन्ना से बुक्स मांग कर पढ़ा करती थीं।

प्रसन्ना सुधा की कंपनी में ट्रेनिंग करते थे और वे नारायण मूर्ति के अच्छे दोस्त थे। नारायण को भी किताबों का शौक था।

प्रसन्ना नारायण से किताबें मांग कर सुधा को दिया करते थे।

एक बार मूर्ति ने सुधा और प्रसन्ना को अपने घर डिनर के लिए बुलाया। सुधा ने पहले इसके लिए इंकार कर दिया। लेकिन काफी मनाने पर आखिर सुधा मान गई और वह डिनर के लिए गईं।

इसी पार्टी में सुधा और नारायण मूर्ति की पहली मुलाकात हुई। यहां से बात आगे बढ़ी और दोनों के बीच दोस्ती हुई।

नारायण मूर्ति सुधा के साथ डेट पर जाते थे और बिल सुधा देती थीं, क्योंकि मूर्ति के पास उस समय ज्यादा पैसे नहीं होते थे।

ऐसे नारायण मूर्ति ने सुधा मूर्ति को किया प्रपोज

फिर एक दिन नारायण मूर्ति ने सुधा से कहा कि, “मेरी हाइट 5 फुट 4 इंच है। मैं एक मध्यवर्गीय परिवार से आता हूं। मैं कभी अपनी जिंदगी में अमीर नहीं बन सकता हूं। तुम खूबसूरत हो, होशियार हो। तुम जो चाहो वो हासिल कर सकती हो, पर क्या तुम मुझसे शादी करोगी ?”

यह सुनकर सुधा ने इस बात का जवाब देने के लिए कुछ समय मांगा। इसके बाद सुधा ने अपने पेरेंट्स से इस बारे में बात की।

शुरु में पिता नहीं थे तैयार।

सुधा की मां का इस पर सकारात्मक रुख था क्योंकि मूर्ति कर्नाटक से थे, होनहार थे और एक अच्छे परिवार से वास्ता रखते थे। लेकिन उनके पिता मूर्ति की कम सैलरी को लेकर शादी के लिए तैयार नहीं हुए। उस समय मूर्ति रिसर्च असिस्टेंट थे और उनकी सैलरी सुधा से कम थी।
-इस तरह से मूर्ति का कोई खास इंप्रेशन सुधा के परिवार पर बन नहीं पाया और पिता ने शादी के लिए मना कर दिया।

ऐसे हुई शादी

इसके बाद भी दोनों मिलते रहे। कुछ दिनों बाद ही मूर्ति को पाटनी कंप्यूटर में जनरल मैनेजर की जॉब मिल गई।
सुधा ने फिर एक बार मूर्ति को अपने परिवार से मिलवाने के लिए बुलाया। नाराजगी के बावजूद सुधा के पिताजी मुलाकात को राजी हुए।
पुणे में इस मुलाकात के लिए दिन तय हुआ और समय रखा गया सुबह 10 बजे का , लेकिन मूर्ति समय पर वहां नहीं पहुंच पाए। वे करीब 12 बजे वहां पहुंचे। इस पर सुधा के पिता काफी नाराज हुए। मूर्ति ने आने के बाद बताया कि वह ट्रैफिक में फंस गए थे। तकरीबन आधा घंटा बात करने के बाद सुधा के घर वाले दोनों की शादी के लिए राजी हो गए। दोनों परिवारों की मौजूदगी में 10 फरवरी 1978 को बेंगलुरु में नारायण मूर्ति और सुधा की शादी हुई।

सुधा के पैसों से शुरु की इन्फोसिस

सुधा मूर्ति और एनआर नारायण मूर्ति भारतीय बिजनेस वर्ल्ड में खास मुकाम रखते हैं।

सुधा मूर्ति की इन्फोसिस कंपनी की स्थापना में अहम भूमिका रही है।

उनकी बचत के दस हजार रुपए से इस कंपनी की नींव रखी गई थी। नारायण मूर्ति आज भी बड़े गर्व से यह बात लोगों को बताते हैं।

नारायण मूर्ति की कंपनी इन्फोसिस की मार्केट कैपिटल तकरीबन 2.50 लाख (2015 तक) करोड़ रुपए है।

वर्तमान समय में कंपनी में 1.9 लाख(लगभग 2 लाख) कर्मचारी काम करते हैं।

कंपनी का हेडक्वार्टर पुणे के हिंजवाड़ी में स्थित है।

सुधा मूर्ति जी के जीवन से जुड़ी एक विशेष घटना –

बेंगलुरु जा रही एक ट्रेन में टिकट चेकर की नजर एक सीट के नीचे दुबकी हुई ग्यारह-बारह साल की एक लड़की पर पड़ी और उसने उसे टिकट दिखाने के लिए कहा। लड़की रोते हुए बाहर निकली और कहा कि उसके पास टिकट नहीं है। टिकट चेकर ने उसे डांटते हुए गाड़ी से नीचे उतरने को कहा। तभी वहीं मौजूद एक महिला ने दखल दिया, ‘इस लड़की का बेंगलुरु तक का टिकट बना दो इसके पैसे मैं दे देती हूं।’
टिकट चेकर ने कहा, ‘मैडम, टिकट बनवाने के बजाय इसे दो-चार रुपये दे दो तो ये ज्यादा खुश होगी।’ लेकिन महिला ने लड़की का टिकट ले लिया। महिला ने लड़की से पूछा कि वह कहां जा रही है तो उसने कहा कि पता नहीं मेम साब। लड़की ने अपना नाम चित्रा बताया। महिला उसे बेंगलुरु ले गई और जान-पहचान की एक स्वयंसेवी संस्था को सौंप दिया। चित्रा वहां रहकर पढ़ाई करने लगी। महिला उसका हालचाल पता करती और उसकी मदद भी करती रहती।
करीब बीस साल बाद महिला को अमेरिका के सेन फ्रांसिस्को में एक कार्यक्रम में बुलाया गया। कार्यक्रम के बाद वह जब अपना बिल देने के लिए रिसेप्शन पर आई तो पता चला कि उनके बिल का भुगतान सामने बैठे एक दंपती ने कर दिया है। महिला उस दंपती की तरफ मुड़ी और उनसे पूछा,

‘आप लोगों ने मेरा बिल क्यों भर दिया?’

युवती ने कहा,

“मैम, गुलबर्गा से बैंगलुरु तक के टिकट के सामने यह कुछ भी नहीं है।”

महिला ने ध्यानपूर्वक देखा और कहा, ‘अरे चित्रा, तुम’। यह महिला कोई और नहीं, इन्फोसिस फाउंडेशन की चेयरपर्सन सुधा मूर्ति थीं। ऐसी मदद को ही वास्तविक मदद कहा जा सकता है जो किसी के जीवन को बदल डाले। जो लोग दूसरों की मदद करने का ऐसा जज्बा रखते हैं, वे स्वयं जीवन में कहां से कहां पहुंच जाते हैं, इसकी भी सीमा नहीं।

सुधा जी बताती है, कि माता पिता उनकी प्रेरणा के स्रोत है उनके पिता जी एक अच्छे इंसान के साथ -साथ एक दयावान डॉक्टर भी थे । वे आज इस दुनिया मे नही है परंतु उनकी प्रेरणा आज भी मेरे साथ है मैं बचपन में ही अपने माता पिता से दूर हो गयी थी।

सुधा मूर्ति इन्फोसिस फाउंडेशन की चेयरपर्सन हैं। 16 अगस्त 2013 को क्रिस्चियन मेडिकल कॉलेज, वेल्लोर के भाषण में उन्होंने यह कहानी सुनाई।

दयावान डॉक्टर –

बात 1942 की है। उस जमाने में एमबीबीएस से पहले एलएमपी (लाइसेंस्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर) की डिग्री हासिल करनी होती थी। तब मेरे पिता डॉ आर.एच. कुलकर्णी 22 वर्ष के थे। उनकी पोस्टिंग महाराष्ट्र-कर्नाटक की सीमा पर स्थित चंदगढ़ गांव की डिस्पेंसरी में हुई। वहां कुछ ज्यादा काम नहीं था – कभी-कभार बुखार या इंजेक्शन आदि के लिए कोई आ जाता था। पिताजी वहां बोर हो रहे थे। फिर जुलाई का महीना आया। एक रात को तेज बारिश होने लगी। अचानक उनके घर के दरवाजे पर किसी ने जोर से दस्तक दी। बाहर घुप्प अंधेरे में आठ लठैत कंबल ओढ़े खड़े थे। दो कारें भी खड़ीं थीं। उन्होंने पिताजी को तुरंत अपने साज-सामान के साथ चलने का हुक्म दिया। तेज बारिश में डेढ़ घंटे बाद कारें एक घर के पास आकर रुकीं। चारों तरफ स्याह अंधेरा। लठैतों ने पिताजी को घर के अंदर धकेला और वहां एक 17 वर्षीय लड़की की डिलिवरी करने का आदेश दिया। फिर लठैतों ने बाहर से घर को बंद कर दिया। अंदर पूरी तरह अंधेरा था। बस एक चिमनी जल रही थी। लड़की के पास एक बूढ़ी औरत बैठी थी जो बहरी थी। पिताजी युवा थे। उन्हें स्त्री प्रसव और डिलिवरी का कोई पूर्व अनुभव नहीं था।

वो काफी घबराए हुए थे। उनके मुकाबले लड़की ज्यादा आश्वस्त लग रही थी। उसने कहा, ‘डाक्टर मैं जीना नहीं चाहती। मेरे पिता एक बड़े जमींदार हैं।

उनकी 500 एकड़ की खेती है। लड़की होने के कारण उन्होंने मुझे कभी स्कूल नहीं भेजा। मेरी पढ़ाई के लिए घर में ही एक शिक्षक को रखा। मालूम नहीं क्यों मुझे उससे प्रेम हो गया और मैं गर्भवती हो गइ। शिक्षक अपनी जान बचाने के लिए वहां से रफूचक्कर हो गया। गर्भ गिराने के सभी देसी तरीके अपनाए गए जो नाकामयाब रहे। अंत में परिवार ने इज्जत बचाने के लिए मुझे इस सुनसान घर में एक बूढ़ी औरत के साथ रखा। डाक्टर साब आप डिलिवरी नहीं करें। आप बाहर लठैतों से कहें कि बड़े आपरेशन के लिए मुझे बेलगाम लेकर जाना होगा। इस बीच मैं चल बसूंगी – और मैं बस मरना चाहती हूं।’

मेरे पिता ने कहा, ‘डाक्टर का काम मरीज की जान बचाना होता है, न कि लेना। मैं अपनी भरपूर कोशिश करूंगा।’ फिर मेडिकल पढ़ाई का जो कुछ भी उन्हें याद आया उसका उन्होंने उपयोग किया। वहां चावल के एक बोरे पर चादर डाल एक जुगाड़ू पलंग बनाकर उन्होंने उस युवती की डिलिवरी की। शायद विषम परिस्थितियों में साधारण लोगों में भी विलक्षण हिम्मत आ जाती है।

युवती ने एक बच्ची को जन्म दिया। जन्म के बाद नवजात बच्चा कुछ आवाज करता है, परन्तु इस बच्ची ने वैसा कुछ भी नहीं किया।

युवती को जब बच्ची के जन्म का पता चला तो उसने डाक्टर से बहुत आरजू-मिन्नत की, ‘अगर लड़का होता तो अच्छा होता। इस बच्ची को जिंदा करने की कोई कोशिश न करें। नहीं तो बड़ी होकर इस लड़की का भी वही हश्र होगा जो मेरा हुआ है।’ पर डॉ कुलकर्णी ने उसकी कोई दलील नहीं सुनी। डाक्टर की हैसियत से उनसे जो कुछ बन पाया उन्होंने किया। उन्होंने बच्ची को उल्टा लटकाकर उसे पीछे से जोर से थपथपाया। तो बच्ची कुछ रोई। यह उसके जिंदा होने का एक शुभ संकेत था।

जब डॉ कुलकर्णी घर के बाहर निकले तो उन लठैतों ने उन्हें बतौर फीस 100 रुपए की बख्शीश दी। 1942 में यह बहुत बड़ी रकम थी। शायद आज के दस हजार रुपए जितनी। पैसे मिलने के बाद पिताजी ने उस युवती की मदद करने की ठानी। अपने छूटे औजार को लाने का बहाना बनाकर वो दुबारा घर के अंदर रह गए। उन्होंने उस युवती को वो सौ रुपए दिए और उससे कहा, ‘देखो तुम पुणे जाओ। वहां एक नर्सिंग कालेज है। वहां मेरा मित्र आपटे एक क्लर्क है। उससे जाकर मिलना और कहना तुम्हें आर.एच ने भेजा है। वो तुम्हारी जरूर मदद करेगा।’ फिर पिताजी इस घटना को पूरी तरह भूल गए। कुछ सालों बाद उनकी शादी हुई। मेरी मां एक स्कूल टीचर थीं। मां के बचाए हुए पैसों से ही पिताजी ने बम्बई जाकर एमबीबीएस किया। और 42 साल की उम्र में उन्होंने गाइनिकॉलोजी में एमएस किया। अक्सर लोग पिताजी का मजाक उड़ाते, ‘आपकी बेटियां तो अब बड़ी हो गई हैं, फिर अब आप और क्यों पढ़ रहे हैं?’ पर पिताजी को पढ़ने की बेहद लगन थी। अपने पहले मरीज से ही उन्हें स्त्री विशेषज्ञ बनने की प्रेरणा मिली थी। उन्हें लगता था कि स्त्री विशेषज्ञ बनकर वो शायद अन्य युवतियों की भी मदद कर पाएं। रिटार्यमेंट के बाद भी पिताजी मेडिकल कान्फ्रेंसों में जाते रहते और नया ज्ञान अर्जित करते रहे । एक बार वो औरंगाबाद में स्त्री विशेषज्ञों की एक कान्फ्रेंस में गए। वहां पर एक युवा महिला डाक्टर चंद्रा ने बहुत सुन्दर भाषण दिया जिसे सुनकर पिताजी बेहद प्रभावित हुए। पूछने पर डाक्टर चंद्रा ने बताया कि वो कई गांवों में महिलाओं के स्वास्थ्य पर काम करती हैं और इसीलिए उन्हें इसका गहरा ज्ञान है। इसी बीच पिताजी के एक पुराने मित्र आए और उन्होंने उनसे कहा, ‘डा आर.एच आप कैसे हैं?’

डॉ आर.एच का नाम सुनते ही डाक्टर चंद्रा लपक कर पिताजी के पास आईं और उन्होंने पूछा, ‘क्या आपने कभी चंदगढ़ की डिस्पेंस्री में काम किया था?’

‘हां, हां, बहुत साल पहले,’ पिताजी ने उत्तर दिया।

‘सर, फिर तो आपको मेरे घर चलना ही होगा!’ डाक्टर चंद्रा ने कहा।

‘बेटा मैं तुम्हें पहली बार मिला हूं। तुम्हें अच्छी तरह जानता भी नहीं, फिर मैं कैसे तुम्हारे घर जा सकता हूं?’ पिताजी ने कहा।

‘नहीं सर, आपको चलना ही होगा। इससे मेरी मां को बेहद खुशी मिलेगी।’

घर पहुंचने पर एक खिचड़ी बालों वाली अधेड़ उम्र की महिला बाहर निकली और उसने सबसे पहले पिताजी के पैर छुए। महिला ने कहा, ‘सर, मैं आपकी वो पहली मरीज हूं जिसकी आपने 1942 में डिलिवरी की थी। आप के बताए अनुसार मैं घर छोड़कर पुणे गई और वहां आप्टे क्लर्क से मिली। तब मैं दसवीं पास भी नहीं थी फिर भी उन्होंने मुझे नर्सिंग कालेज में दाखिला दिया। फिर मैं पुणे में स्टाफ नर्स बनी। घर वालों ने जब पुणे में मेरा पीछा किया तो फिर मैं बम्बई चली गई। जब मैंने पुलिस में रिपोर्ट करने की धमकी दी तब जाकर मेरे घरवाले चुप हुए। मैंने अपनी लड़की को खूब पढ़ाया और उसे डाक्टर बनने के लिए प्रेरित किया। मैंने उससे कहा कि तुम स्त्री विशेषज्ञ बनो जिससे कि तुम भी डाक्टर आर.एच जैसी अन्य युवतियों की मदद कर सको।
कहां है आपकी बेटी?’ पिताजी ने उत्सुकतावश पूछा।

‘यह चंद्रा ही तो मेरी बेटी है। मरने से पहले मैं एक बार अवश्य आपके दर्शन करना चाहती थी। मैंने आपको खोजने का बहुत प्रयास किए पर असफल रही। मैंने आप्टे जी से भी सम्पर्क किया पर तब तक उनका देहांत हो चुका था। आपका पहला नाम रामचंद्रा है। उसके ऊपर ही मैंने अपनी बेटी का नाम चंद्रा रखा। चंद्रा का एक अस्पताल है जिसका नाम है आर.एच नर्सिंग होम। वो अगर तीन मरीजों से फीस लेती है तो दो मरीजों को नि:शुल्क देखती है।

तो दोस्तो, यह थी कुछ खास औऱ बहुत अच्छी जानकारी एक ऐसी महिला के जीवन से सम्बंधित जिन्होंने महिला होकर मिसाल कायम कर दी। जिससे आज सभी लोग प्रेरित है।

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