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Home»धर्म»फाल्गुन मास की आमलकी  एकादशी का माहात्म्य: पूरी करेगा समस्त मनोकामनाएं
धर्म

फाल्गुन मास की आमलकी  एकादशी का माहात्म्य: पूरी करेगा समस्त मनोकामनाएं

By Archana Dwivedi
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हिंदू पंचांग के अंतर्गत प्रत्येक माह की 11वीं तीथि को एकादशी कहा जाता है। एकादशी को भगवान विष्णु को समर्पित तिथि माना जाता है। एक महीने में दो पक्ष होने के कारण दो एकादशी होती हैं, एक शुक्ल पक्ष मे तथा दूसरी कृष्ण पक्ष मे। इस प्रकार वर्ष मे कम से कम 24 एकादशी हो सकती हैं, परन्तु अधिक मास की स्थति मे यह संख्या 26 भी हो सकती है। 20 मार्च 2024 को आमलकी एकादशी मनाई जा रही हैं। एकादशी में विशेष तौर पर भगवान विष्णु की पूजा की जाती है। विष्णु जी की पूजा करने से हजारों करोड़ व्रत करने का पुण्य प्राप्त होता है

व्रत का विधान  व नियम

एकादशी के व्रत का सम्वन्ध तीन दिनों की दिनचर्या से है। भक्त उपवास के दिन, से एक दिन पहले दोपहर में भोजन लेने के उपरांत शाम का भोजन नहीं ग्रहण करते हैं, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि अगले दिन पेट में कोई अवशिष्ट भोजन न बचा रहे। भक्त एकादशी के दिन उपवास के नियमों का कड़ाई से पालन करते हैं। तथा अगले दिन सूर्योदय के बाद ही उपवास समापन करते हैं। एकादशी व्रत के दौरान सभी प्रकार के अनाज का सेवन वर्जित होता है।

एकादशी में चावल खाना चाहिए या नहीं….


जो लोग किसी कारण एकादशी व्रत नहीं रखते हैं, उन्हें एकादशी के दिन भोजन में चावल का प्रयोग नहीं करना चाहिए तथा झूठ एवं परनिंदा से बचना चाहिए। जो व्यक्ति एकादशी के दिन विष्णुसहस्रनाम का पाठ करता है, उस पर भगवान विष्णु की विशेष कृपा होती है।

आमलकी एकादशी व्रत कथा

युधिष्ठिरने कहा- श्रीकृष्ण ! अब फाल्गुन शुक्ल पक्ष की आमलकी एकादशी का नाम और माहात्म्य बताने की कृपा कीजिये।

श्री भगवान बोले -” महाभाग धर्म नंदन सुनो तुम्हें इस समय वह प्रसंग सुनाता हूं जिसे राजा मांधाता की पूछने पर महात्मा वशिष्ठ ने कहा था। फाल्गुन शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम आमलकी एकादशी है। इसका पवित्र व्रत विष्णुलोक की प्राप्ति करने वाला है।

मांधाता ने पूछा -” द्विज श्रेष्ठ या आमलकी की कब उत्पन्न हुई मुझे बताइए…

वशिष्ठ जी ने कहा-” महाभाग सुनो पृथ्वी पर आमलकी की उत्पत्ति किस प्रकार हुई यह बताता हूं आमलकी महान वृक्ष है जो सब पापों का नाश करने वाला है भगवान विष्णु के थूकने पर उनके मुख से चंद्रमा के समान कांतिमान एक बिंदु प्रकट हुआ वह बिंदु पृथ्वी पर गिरा उसी से आमलकी यानि आंवले का महान वृक्ष उत्पन्न हुआ।

यह सभी वृक्षों का आदिभूत कहलाता है। इसी समय समस्त प्रजा को सृष्टि करनेके लिये भगवान्ने ब्रह्माजी को उत्पन्न किया। उन्हींसे इन प्रजाओं की सृष्टि हुई। देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, नाग तथा निर्मल अन्तःकरणवाले महर्षियोंको ब्रह्माजीने जन्म दिया । उनमें से देवता और ऋषि उस स्थानपर आये, जहाँ विष्णुप्रिया आमलकीका वृक्ष था। महाभाग ! उसे देखकर देवताओ को बड़ा विस्मय हुआ। वे एक-दूसरे पर दृष्टिपात करते हुए उत्कण्ठापूर्वक उस वृक्ष की ओर देखने लगे और खड़े-खड़े सोचने लगे कि प्रक्ष (पाकर) आदि वृक्ष तो पूर्व कल्पकी ही भांति हैं, जो सब-के-सब हमारे परिचित है, किन्तु इस वृक्षको हम नहीं जानते।

उन्हें इस प्रकार चिन्ता करते देख आकाशवाणी हुई – ‘महर्षियो ! यह सर्वश्रेष्ठ आमलकीका वृक्ष है, जो विष्णु को प्रिय है। इसके स्मरणमात्रसे गोदानका फल मिलता है। स्पर्श करने से इससे दूना और फल भक्षण करनेसे तिगुना पुण्य प्राप्त होता है। इसलिये सदा प्रयत्नपूर्वक आमलकीका – सेवन करना चाहिये। यह सब पापों को हरने वाला वैष्णव वृक्ष बताया गया है। इसके मूलमें विष्णु, उसके ऊपर ब्रह्मा, स्कन्धमें परमेश्वर भगवान् रुद्र, शास्त्राओंमें मुनि, टहनियोंमें देवता, पत्तोंमें वसु, फूलों में मरुद्रण तथा न फलोंमें समस्त प्रजापति वास करते हैं। आमलकी सर्वदेवमयी बतायी गयी है। अतः विष्णुभक्त पुरुषों के लिये यह परम पूज्य है।’

ऋषि बोले- [ अव्यक्त स्वरूपसे बोलनेवाले महापुरुष ! ] हमलोग आपको क्या समझें- आप कौन है ? देवता है या कोई और ? हमें ठीक-ठीक बताइये । आकाशवाणी हुई जो सम्पूर्ण भूतोंके कर्ता और समस्त भुवनोंके स्रष्टा है, जिन्हें विद्वान् पुरुष भी कठिनतासे देख पाते हैं, वही सनातन विष्णु मैं हूं।

देवाधिदेव भगवान् विष्णुका कथन सुनकर उन ब्रह्मकुमार महर्षियों के नेत्र आश्चर्य से चकित हो उठे। उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। वे आदि-अन्तरहित भगवान्की स्तुति करने लगे।

ऋषि बोले- सम्पूर्ण भूतोंके आत्मभूत, आत्मा एवं परमात्मा को नमस्कार है। अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले अच्युतको नित्य प्रणाम है। अन्तरहित परमेश्वरको बारम्बार प्रणाम है। दामोदर, कवि (सर्वज्ञ) और यज्ञेश्वरको नमस्कार है। मायापते ! आपको प्रणाम है। आप विश्वके स्वामी हैं; आपको नमस्कार है।

ऋषियों के इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवान् श्रीहरि संतुष्ट हुए और बोले – महर्षियो ! तुम्हें कौन-सा अभीष्ट वरदान हूं ?’
ऋषि बोले- भगवन्! यदि आप संतुष्ट हैं तो हमलोगोंके हितके लिये कोई ऐसा व्रत बतलाइये, जो स्वर्ग और मोक्षरूपी फल प्रदान करनेवाला हो।

श्रीविष्णु बोले – महर्षियो ! फाल्गुन शुक्लपक्षमें यदि पुष्य नक्षत्र से युक्त द्वादशी हो तो वह महान् पुण्य देने वाली और बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाली होती है। द्विजवरो ! उसमें जो विशेष कर्तव्य है, उसको सुनो। आमलकी एकादशीमें आँवले के वृक्षके पास जाकर वहां रात्रि में जागरण करना चाहिये। इससे मनुष्य सब पापों से छूट जाता और सहस्त्र गोदानों का फल प्राप्त करता है। विप्रगण ! यह व्रतोंमें उत्तम व्रत है, जिसे मैंने तुमलोगोंको बताया है

ऋषि बोले – भगवन् ! इस व्रतकी विधि बतलाइये। यह कैसे पूर्ण होता है? इसके देवता, नमस्कार और मन्त्र कौन-से बताये गये हैं ? उस समय स्त्रान और दान कैसे किया जाता है ? पूजन की कौन-सी विधि है तथा उसके लिये मन्त्र क्या है ? इन सब बातों का यथार्थ रूप से वर्णन कीजिये ।

भगवान् विष्णु ने कहा-द्विजवरो ! इस व्रतको जो उत्तम विधि है, उसको श्रवण करो ! एकादशी को प्रातःकाल दन्तधावन करके यह सङ्कल्प करे कि…

‘हे पुण्डरीकाक्ष ! हे अच्युत ! मैं एकादशीको निराहार रहकर दूसरे दिन भोजन करूंगा। आप मुझे शरणमें रखें।’ ऐसा नियम लेने के बाद पतित, चोर, पाखण्डी, दुराचारी, मर्यादा भंग करनेवाले तथा गुरुपत्नीगामी, मनुष्यों से वार्तालाप न करे। अपने मनको वशमें रखते हुए नदीमें, पोखरेमें, कुएं पर अथवा घर में ही स्नान करे। स्नान के पहले शरीर में मिट्टी लगाये ।

मृत्तिका लगाने का मन्त्र :

अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे ।

मृत्तिके हर मे पापं जन्मकोट्यां समर्जितम् ॥

‘वसुन्धरे ! तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते हैं तथा वामन अवतारके समय भगवान् विष्णुने भो तुम्हें अपने पैरोंसे नापा था। मृत्तिके ! मैंने करोड़ों जन्मोंमें जो पाप किये है, मेरे उन सब पापोंको हर लो।’

खान-मन्त्र त्वं मातः सर्वभूतानां जीवनं तत्तु रक्षकम् । स्वेदजोद्धिज्जजातीनां रसानां पतये नमः ॥

स्त्रातोऽहं सर्वतीर्थेषु हृदप्रस्त्रवणेषु च।                         नदीषु देवखातेषु इदं स्त्रानं तु मे भवेत् ॥      

जलकी अधिष्ठात्री देवी ! मातः ! तुम सम्पूर्ण भूतों के लिये जीवन हो। वही जीवन, जो स्वेदज और उद्धिज्ज जातिके जीवोंका भी रक्षक है। तुम रसोंकी स्वामिनी हो। तुम्हें नमस्कार है। आज मैं सम्पूर्ण तीर्थों, कुण्डों, झरनों, नदियों और देवसम्बन्धी सरोवरोंमें स्नान – कर चुका। मेरा यह स्नान उक्त सभी स्त्रानोंका फल देनेवाला हो ।’

विद्वान् पुरुष को चाहिये कि वह परशुरामजी को सोने की प्रतिमा बनवाये। प्रतिमा अपनी शक्ति और धन के अनुसार एक या आधे माशे सुवर्ण की होनी चाहिये। खान के पश्चात् घर आकर पूजा और हवन करे। इसके बाद सब प्रकार की सामग्री लेकर आँवले के वृक्षके पास जाय। वहां वृक्ष के चारों ओर की जमीन झाड़-बुहार, लीप-पोतकर शुद्ध करे। शुद्ध की हुई भूमि में मन्त्रपाठ- पूर्वक जलसे भरे हुए नवीन कलशकी स्थापना करे। कलश में पञ्चरत्र और दिव्य गन्ध आदि छोड़ दे। श्वेतचन्दन से उसको चर्चित करे। कण्ठमें फूलकी माला पहनाये।

सब प्रकार के धूप की सुगन्ध फैलाये। जलते हुए दीपकों की श्रेणी सजाकर रखे। तात्पर्य यह कि सब ओर से सुन्दर एवं मनोहर दृश्य उपस्थित करें। पूजाके लिये नवीन छाता, जूता और वस्त्र भी मैगाकर रखे । कलशके ऊपर एक पात्र रखकर उसे दिव्य लाजों (खीलों) से भर दे। फिर उसके ऊपर सुवर्णमय परशुरामजी की स्थापना करे ।

‘विशोकाय नमः’ कहकर उनके चरणों की,

‘विश्वरूपिणे नमः’ से दोनों घुटनोंकी,

‘उग्राय नमः’ से जांघों की,

‘दामोदराय नमः’ से कटिभाग की,

‘पद्मनाभाय नमः’ से उदरकी,

श्रीवत्सधारिणे नमः’ से वक्षःस्थलकी,

‘चक्रिणे नमः’ से बायी बाँहकी,

‘गदिने नमः’ से दाहिनी बाँहकी,

‘वैकुण्ठाय नमः’ से कण्ठकी,

‘यज्ञमुलाय नमः’ से मुखकी,

‘विशोक निधये नमः’ से नासिकाकी,

‘वासुदेवाय नमः’ से नेत्रोंकी,

‘वामनाय नमः’ से लल्लाटकी,

‘सर्वात्मने नमः’ से सम्पूर्ण अङ्गों तथा मस्तककी पूजा करे।

ये ही पूजा के मन्त्र हैं। तदनन्तर भक्तियुक्त चित्तसे शुद्ध फलके द्वारा देवाधिदेव परशुरामजीको अर्घ्य प्रदान करे। अर्घ्यका मन्त्र इस प्रकार है-

नमस्ते देवदेवेश जामदग्न्य नमोऽस्तु ते ।             गृहाणार्घ्यमिमं दत्तमामलक्या युतं हरे ॥

देवदेवेश्वर । जमदग्रिनन्दन ! श्रीविष्णुस्वरूप परशुरामजी ! आपको नमस्कार है, नमस्कार है। आंवले के फलके साथ दिया हुआ मेरा यह अर्घ्य ग्रहण कीजिये ।’

रात में करें जागरण

तदनन्तर भक्तियुक्त चित्तसे जागरण करे। नृत्य, संगीत, वाद्य, धार्मिक उपाख्यान तथा श्री विष्णु सम्बन्धिनी कथा-वार्ता आदिके द्वारा वह रात्रि व्यतीत करे। उसके बाद भगवान् विष्णुके नाम ले-लेकर आमलकी वृक्षकी परिक्रमा एक सौ आठ या अट्ठाईस बार करे। फिर सबेरा होनेपर श्रीहरिकी आरती करे। ब्राह्मणकी पूजा करके वहाँकी सब सामग्री उसे निवेदन कर दे। परशुरामजीका कलश, दो वस्त्र, जूता आदि सभी वस्तुएँ दान कर दे और यह भावना करे कि ‘परशुरामजीके स्वरूपमें भगवान् विष्णु मुझपर प्रसन्न हों।’

तत्पश्चात् आमलकी का स्पर्श करके उसकी प्रदक्षिणा करे और स्रान करनेके बाद विधिपूर्वक ब्राह्मणों को भोजन   कराये। तदनन्तर कुटुम्बियोंके साथ बैठकर स्वयं भी भोजन करे। ऐसा करनेसे जो पुण्य होता है, वह सब बतलाता हूँ: सुनो। सम्पूर्ण तीर्थोक सेवनसे जो पुण्य प्राप्त होता है तथा सब प्रकार के दान देने से जो फल मिलता है, वह सब उपर्युक्त विधि के पालन से सुलभ होता है। समस्त यज्ञों की अपेक्षा भी अधिक फल मिलता है; इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। यह व्रत सब व्रतोंमें उत्तम है, जिसका मैंने तुमसे पूरा-पूरा वर्णन किया है।

वसिष्ठजी कहते हैं- महाराज ! इतना कहकर देवेश्वर भगवान् विष्णु वहीं अन्तर्धान हो गये। तत्पश्चात् उन समस्त महर्षियोंने उक्त व्रतका पूर्णरूपसे पालन किया। नृपश्रेष्ठ ! इसी प्रकार तुम्हें भी इस व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये ।

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- युधिष्ठिर ! यह दुर्धर्ष व्रत मनुष्यको सब पापों से मुक्त करनेवाला है। 

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