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Home»धर्म»ऋषि पंचमी की व्रतकथा, विधान तथा महत्व
धर्म

ऋषि पंचमी की व्रतकथा, विधान तथा महत्व

By Archana DwivediUpdated:September 8, 2024
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ऋषि पंचमी का व्रत मुख्य रूप से रजस्वला स्त्रियों को रखना चाहिए क्योंकि रजस्वला के दौरान किए गए पापों की मुक्ति का एकमात्र रास्ता ऋषि पंचमी का व्रत है । इस व्रत को करने से महिलाओं के समस्त पाप दूर हो जाते हैं एवं उनके द्वारा किए गए जाने अनजाने में की गई भूल भी भगवान माफ कर देते हैं । इस ऋषि पंचमी के व्रत में सप्त ऋषियों सहित माता अरुंधति की पूजा करने का विधान है । इस व्रत में खेत का जोता या बोया गया नहीं खाया जाता है बल्कि ऐसी चीज खाई जाती है जिसको खेत में ना जोता गया हो।

वैसे तो सभी महिलाओं एवं लड़कियों को इस व्रत का पालन जरुर करना चाहिए एवं इस व्रत को रखना चाहिए परंतु यदि महिलाएं हमेशा यह व्रत नहीं रह सकती हैं तो वह कम से कम दो बार इस व्रत को अवश्य कर लें और उसके बाद में इसका उद्यापन कर सकती है।

ऋषि पंचमी की व्रत कथा

आईए जानते हैं कि क्या है ऋषि पंचमी की व्रत कथा

प्राचीन काल में एक ब्राह्मण था जिसका नाम उत्तंक था। वह बहुत ही धार्मिक और वेदों के ज्ञाता थे। एक दिन, वह अपनी पत्नी के साथ एक यज्ञ में भाग लेने के लिए गया। वहाँ, उन्होंने देखा कि यज्ञ के लिए एक गाय की बलि दी जा रही है। उत्तंक को यह देखकर बहुत दुःख हुआ और उन्होंने सोचा कि यह कैसे धर्म हो सकता है।

तभी, एक आकाशवाणी हुई जिसमें कहा गया कि यह यज्ञ अधूरा है और इसके लिए एक ऋषि की बलि देनी होगी। उत्तंक ने सोचा कि वह खुद को बलि दे देगा, लेकिन तभी उनकी पत्नी ने कहा कि वह खुद को बलि देगी।

उत्तंक की पत्नी ने अपने आप को बलि दे दिया और इसके बाद उत्तंक को एक आकाशवाणी हुई जिसमें कहा गया कि उनकी पत्नी की बलि स्वीकार हुई है और वह अब एक ऋषि बन गई है। इसके बाद, उत्तंक ने अपनी पत्नी की स्मृति में ऋषि पंचमी का व्रत रखा और इसके बाद से यह व्रत प्रचलित हो गया।

यह व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को रखा जाता है। इस दिन, महिलाएं अपने पति की लंबी आयु और सुख-समृद्धि के लिए व्रत रखती हैं और ऋषि पंचमी की कथा सुनती हैं।

ऋषि पंचमी की दूसरी कथा

सतयुग में विदर्भ नगरी में श्येनजित नामक राजा हुए थे। वह ऋषियों के समान थे। उन्हीं के राज में एक कृषक सुमित्र था। उसकी पत्नी जयश्री अत्यंत  पतिव्रता थी। 

एक समय वर्षा ऋतु में जब उसकी पत्नी खेती के कामों में लगी हुई थी, तो वह रजस्वला हो गई। उसको रजस्वला होने का पता लग गया फिर भी वह घर के कामों में लगी रही। कुछ समय बाद वह दोनों स्त्री-पुरुष अपनी-अपनी आयु भोगकर मृत्यु को प्राप्त हुए। जयश्री तो कुतिया बनीं और सुमित्र को रजस्वला स्त्री के सम्पर्क में आने के कारण बैल की योनी मिली, क्योंकि ऋतु दोष के अतिरिक्त इन दोनों का कोई अपराध नहीं था। 

इसी कारण इन दोनों को अपने पूर्व जन्म का समस्त विवरण याद रहा। वे दोनों कुतिया और बैल के रूप में उसी नगर में अपने बेटे सुचित्र के यहां रहने लगे। धर्मात्मा सुचित्र अपने अतिथियों का पूर्ण सत्कार करता था। अपने पिता के श्राद्ध के दिन उसने अपने घर ब्राह्मणों को भोजन के लिए नाना प्रकार के भोजन बनवाए। 

जब उसकी स्त्री किसी काम के लिए रसोई से बाहर गई हुई थी तो एक सर्प ने रसोई की खीर के बर्तन में विष वमन कर दिया। कुतिया के रूप में सुचित्र की मां कुछ दूर से सब देख रही थी। पुत्र की बहू के आने पर उसने पुत्र को ब्रह्म हत्या के पाप से बचाने के लिए उस बर्तन में मुंह डाल दिया। सुचित्र की पत्नी चन्द्रवती से कुतिया का यह कृत्य देखा न गया और उसने चूल्हे में से जलती लकड़ी निकाल कर कुतिया को मारी।

बेचारी कुतिया मार खाकर इधर-उधर भागने लगी। चौके में जो झूठन आदि बची रहती थी, वह सब सुचित्र की बहू उस कुतिया को डाल देती थी, लेकिन क्रोध के कारण उसने वह भी बाहर फिकवा दी। सब खाने का सामान फिकवा कर बर्तन साफ करके दोबारा खाना बना कर ब्राह्मणों को खिलाया। 

रात्रि के समय भूख से व्याकुल होकर वह कुतिया बैल के रूप में रह रहे अपने पूर्व पति के पास आकर बोली, हे स्वामी! आज तो मैं भूख से मरी जा रही हूं। वैसे तो मेरा पुत्र मुझे रोज खाने को देता था, लेकिन आज मुझे कुछ नहीं मिला। सांप के विष वाले खीर के बर्तन को अनेक ब्रह्म हत्या के भय से छूकर उनके न खाने योग्य कर दिया था। इसी कारण उसकी बहू ने मुझे मारा और खाने को कुछ भी नहीं दिया। 

तब वह बैल बोला, हे भद्रे! तेरे पापों के कारण तो मैं भी इस योनी में आ पड़ा हूं और आज बोझा ढ़ोते-ढ़ोते मेरी कमर टूट गई है। आज मैं भी खेत में दिनभर हल में जुता रहा। मेरे पुत्र ने आज मुझे भी भोजन नहीं दिया और मुझे मारा भी बहुत। मुझे इस प्रकार कष्ट देकर उसने इस श्राद्ध को निष्फल कर दिया। 

अपने माता-पिता की इन बातों को सुचित्र सुन रहा था, उसने उसी समय दोनों को भरपेट भोजन कराया और फिर उनके दुख से दुखी होकर वन की ओर चला गया। वन में जाकर ऋषियों से पूछा कि मेरे माता-पिता किन कर्मों के कारण इन नीची योनियों को प्राप्त हुए हैं और अब किस प्रकार से इनको छुटकारा मिल सकता है। तब सर्वतमा ऋषि बोले तुम इनकी मुक्ति के लिए पत्नीसहित ऋषि पंचमी का व्रत धारण करो तथा उसका फल अपने माता-पिता को दो। 

भाद्रपद महीने की शुक्ल पंचमी को मुख शुद्ध करके मध्याह्न में नदी के पवित्र जल में स्नान करना और नए रेशमी कपड़े पहनकर अरूधन्ती सहित सप्तऋषियों का पूजन करना। इतना सुनकर सुचित्र अपने घर लौट आया और अपनी पत्नीसहित विधि-विधान से पूजन व्रत किया। उसके पुण्य से माता-पिता दोनों पशु योनियों से छूट गए। इसलिए जो महिला श्रद्धापूर्वक ऋषि पंचमी का व्रत करती है, वह समस्त सांसारिक सुखों को भोग कर बैकुंठ को जाती है। 

ऋषि पंचमी का व्रत रखने का विधान

  • ऋषि पंचमी का व्रत महिलाएं रखती हैं और इसमें वे अपने पति की लंबी आयु और सुख-समृद्धि के लिए प्रार्थना करती हैं।
  • इस दिन, महिलाएं सूर्योदय से पहले उठती हैं और स्नान करती हैं, इसके बाद वे व्रत का संकल्प लेती हैं।
  • व्रत के दौरान, महिलाएं केवल फल और जल ग्रहण करती हैं और रात में व्रत तोड़ती हैं।
  • ऋषि पंचमी के दिन, महिलाएं अपने पति के पैर पूजती हैं और उनके लिए प्रार्थना करती हैं।
  • यह व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को रखा जाता है, जो आमतौर पर अगस्त या सितंबर में आता है।

यह व्रत महिलाओं के लिए एक महत्वपूर्ण त्योहार है, जिसमें वे अपने पति की लंबी आयु और सुख-समृद्धि के लिए प्रार्थना करती हैं।

ऋषि पंचमी का व्रत रखने का महत्व

ऋषि पंचमी का व्रत मुख्य रूप से महिलाएं रखती हैं और इसके पीछे कई कारण हैं:

१) पति की लंबी आयु: महिलाएं अपने पति की लंबी आयु और सुख-समृद्धि के लिए यह व्रत रखती हैं।

२) पति के पापों का निवारण: माना जाता है कि ऋषि पंचमी का व्रत करने से पति के पापों का निवारण होता है।

३) संतान की सुख-समृद्धि: महिलाएं अपनी संतान की सुख-समृद्धि और स्वास्थ्य के लिए भी यह व्रत रखती हैं।

४) आत्मशुद्धि: ऋषि पंचमी का व्रत करने से महिलाओं को आत्मशुद्धि और आध्यात्मिक शक्ति मिलती है।

५) पारिवारिक सुख: यह व्रत करने से पारिवारिक सुख और सौहार्द बढ़ता है।

ऋषि पंचमी का व्रत करने से महिलाओं को कई लाभ होते हैं और यह व्रत उनके जीवन में सुख-समृद्धि और शांति लाता है।

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