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Home»धर्म»जाने कैसे करें भगवान श्री जगन्नाथ जी की पूजा अर्चना और शुभ मुहूर्त व कथा के बारे में….
धर्म

जाने कैसे करें भगवान श्री जगन्नाथ जी की पूजा अर्चना और शुभ मुहूर्त व कथा के बारे में….

By Archana Dwivedi
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पंचांग के अनुसार, जगन्नाथ रथ यात्रा का आयोजन आषाढ़ शुक्ल द्वितीया तिथि को होता है, ऐसे में इस साल आषाढ़ शुक्ल द्वितीया तिथि 19 जून को सुबह 11:25 बजे से लेकर 20 जून को दोपहर 01:07 बजे तक है. उदयातिथि के आधार पर पूरे दिन आषाढ़ शुक्ल द्वितीया तिथि है।

हिंदू धर्म में चार धाम की यात्रा करना बहुत शुभ और पुण्यदायक माना जाता है। मान्यता है कि जो लोग चारधाम की यात्रा करते हैं उनके सभी कष्ट दूर हो जाते हैं और उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होती है। पुरी के जगन्नाथ मंदिर में भगवान को खिचड़ी का भोग लगाया जाता है।

भगवान जगन्नाथ के मंदिर का रहस्य

कहा जाता है की भगवान श्री कृष्ण ने जब अपनी देह छोड़ी और उनका जब अंतिम संस्कार किया गया और जब उनका पूरा शरीर पंच तत्वों मिल गयी लेकिन उनका ह्रदय नहीं नष्ट हुआ और बिल्कुल एक ज़िन्दे इंसान की तरफ धड़क रहा था और बिल्कुल ही सुरक्षित था, और ये बात बहुत कम लोगोंको पता होगा की आज भी ये हृदय बिल्कुल सुरक्षित है जो की जगन्नाथ भगवान की काठ की मूर्ति में बसा हुआ है। और धड़कता रहता है। 

जब भी भगवान जगन्नाथ मंदिर की सफाई होती है तो ये सोने से बने हुए झाड़ू से होती है। 

भगवान जगन्नाथ को कलियुग का भगवान भी माना जाता है। उड़ीसा के पुरी में भगवान जगन्नाथ जी अपनी बहन सुभद्रा और भाई बलराम के साथ विराजमान है। परन्तु भगवान जगन्नाथ से जुड़े हुए बहुत से ऐसे भी रहस्य है जिसका आज तक कोई पता नहीं कर सका। 

जगन्नाथ जी के मंदिर में भी पुरी तरह से अँधेरा रहता है और पुजारी के आँखों पर भी एक पट्टी बांध दी जाती है और और पुजारी अपने दोनों हाथों में दस्ताने पहन कर पुरानी मूर्ति में से एक ब्रह्मा पदार्थ निकाल कर नई मूर्ति में डालता है। ये पदार्थ क्या है आज तक कोई पता नहीं लगा सका है और हजारों वर्षों से एक मूर्ति से दूसरी मूर्ति परिवर्तित करते रहते है। 

लेकिन आजतक कोई भी पुजारी ये नहीं बता पाया की वो पदार्थ क्या है जिसे एक मूर्ति से दूसरी मूर्ति में डाली जाती है। जिन पुजारियों ने उस पदार्थ को हाथ लगाया है उनका कहना है की यह खरगोश की तरह उछलता रहता है। और आज भी हर साल जगन्नाथ यात्रा पहले वहां का राजा स्वयं अपने हाथों से झाड़ू लगाता है। 

 आज भी हर साल जगन्नाथ यात्रा के पहले वहां का राजा स्वयं अपने हाथों से झाड़ू लगाता है। 

और इस मंदिर की एक खास बात ये भी है की जैसे ही हम मंदिर के सिंह द्वार से पहला कदम अंदर रखते है तो समुद्र के लहरों की आवाजें सुनाई देने बंद हो जाती है जबकि जैसे ही मंदिर से एक कदम बाहर रखेंगे समुद्र के लहरों की आवाजें तेज़ी से कानों में सुनाई देने लगती है। 

अक्सर मंदिरों के ऊपर पक्षी बैठे हुए दिखाई देते है परन्तु  जगन्नाथ मंदिर के ऊपर से कोई भी गुजरता हुआ नहीं दिखाई देता और मंदिर पर लगा हुआ झंडा हमेशा हवा के विपरीत दिशा में लहरता है। और पूरे दिन किसी भी समय भगवान जगन्नाथ मंदिर के मुख्य शिखर की परछाई नहीं बनती है। 

भगवान जगन्नाथ की कथा

माना जाता है कि भगवान विष्णु जब चारों धामों पर बसे अपने धामों की यात्रा पर जाते हैं तो हिमालय की ऊंची चोटियों पर बने अपने धाम बद्रीनाथ में स्नान करते हैं। पश्चिम में गुजरात के द्वारिका में वस्त्र पहनते हैं। पुरी में भोजन करते हैं और दक्षिण में रामेश्‍वरम में विश्राम करते हैं। द्वापर के बाद भगवान कृष्ण पुरी में निवास करने लगे और बन गए जग के नाथ अर्थात जगन्नाथ। पुरी का जगन्नाथ धाम चार धामों में से एक है। यहां भगवान जगन्नाथ बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ विराजते हैं।

पुराणों में इसे धरती का वैकुंठ कहा गया है। यह भगवान विष्णु के चार धामों में से एक है। इसे श्रीक्षेत्र, श्रीपुरुषोत्तम क्षेत्र, शाक क्षेत्र, नीलांचल, नीलगिरि और श्री जगन्नाथ पुरी भी कहते हैं। यहां लक्ष्मीपति विष्णु ने तरह-तरह की लीलाएं की थीं। ब्रह्म और स्कंद पुराण के अनुसार यहां भगवान विष्णु पुरुषोत्तम नीलमाधव के रूप में अवतरित हुए और सबर जनजाति के परम पूज्य देवता बन गए। सबर जनजाति के देवता होने के कारण यहां भगवान जगन्नाथ का रूप कबीलाई देवताओं की तरह है। पहले कबीले के लोग अपने देवताओं की मूर्तियों को काष्ठ से बनाते थे।जगन्नाथ मंदिर में सबर जनजाति के पुजारियों के अलावा ब्राह्मण पुजारी भी हैं। ज्येष्ठ पूर्णिमा से आषाढ़ पूर्णिमा तक सबर जाति के दैतापति जगन्नाथजी की सारी रीतियां करते है।

राजा इंद्रदयुम्न ने बनवाया था यहां मंदिर : राजा इंद्रदयुम्न मालवा का राजा था जिनके पिता का नाम भारत और माता सुमति था। राजा इंद्रदयुम्न को सपने में हुए थे जगन्नाथ के दर्शन। कई ग्रंथों में राजा इंद्रदयुम्न और उनके यज्ञ के बारे में विस्तार से लिखा है। उन्होंने यहां कई विशाल यज्ञ किए और एक सरोवर बनवाया। एक रात भगवान विष्णु ने उनको सपने में दर्शन दिए और कहा नीलांचल पर्वत की एक गुफा में मेरी एक मूर्ति है उसे नीलमाधव कहते हैं। ‍तुम एक मंदिर बनवाकर उसमें मेरी यह मूर्ति स्थापित कर दो। राजा ने अपने सेवकों को नीलांचल पर्वत की खोज में भेजा। उसमें से एक था।  ब्राह्मण  विद्यापति ने सुन रखा था कि सबर कबीले के लोग नीलमाधव की पूजा करते हैं और उन्होंने अपने देवता की इस मूर्ति को नीलांचल पर्वत की गुफा में छुपा रखा है। वह यह भी जानता था कि सबर कबीले का मुखिया विश्‍ववसु नीलमाधव का उपासक है और उसी ने मूर्ति को गुफा में छुपा रखा है। चतुर विद्यापति ने मुखिया की बेटी से विवाह कर लिया। आखिर में वह अपनी पत्नी के जरिए नीलमाधव की गुफा तक पहुंचने में सफल हो गया। उसने मूर्ति चुरा ली और राजा को लाकर दे दी।

विश्‍ववसु अपने आराध्य देव की मूर्ति चोरी होने से बहुत दुखी हुआ। अपने भक्त के दुख से भगवान भी दुखी हो गए। भगवान गुफा में लौट गए, लेकिन साथ ही राज इंद्रदयुम्न से वादा किया कि वो एक दिन उनके पास जरूर लौटेंगे बशर्ते कि वो एक दिन उनके लिए विशाल मंदिर बनवा दे। राजा ने मंदिर बनवा दिया और भगवान विष्णु से मंदिर में विराजमान होने के लिए कहा। भगवान ने कहा कि तुम मेरी मूर्ति बनाने के लिए समुद्र में तैर रहा पेड़ का बड़ा टुकड़ा उठाकर लाओ, जो द्वारिका से समुद्र में तैरकर पुरी आ रहा है।

राजा के सेवकों ने उस पेड़ के टुकड़े को तो ढूंढ लिया लेकिन सब लोग मिलकर भी उस पेड़ को नहीं उठा पाए। तब राजा को समझ आ गया कि नीलमाधव के अनन्य भक्त सबर कबीले के मुखिया विश्‍ववसु की ही सहायता लेना पड़ेगी। सब उस वक्त हैरान रह गए, जब विश्ववसु भारी-भरकम लकड़ी को उठाकर मंदिर तक ले आए।

अब बारी थी लकड़ी से भगवान की मूर्ति गढ़ने की। राजा के कारीगरों ने लाख कोशिश कर ली लेकिन कोई भी लकड़ी में एक छैनी तक भी नहीं लगा सका। तब तीनों लोक के कुशल कारीगर भगवान विश्‍वकर्मा एक बूढ़े व्यक्ति का रूप धरकर आए। उन्होंने राजा को कहा कि वे नीलमाधव की मूर्ति बना सकते हैं, लेकिन साथ ही उन्होंने अपनी शर्त भी रखी कि वे 21 दिन में मूर्ति बनाएंगे और अकेले में बनाएंगे। कोई उनको बनाते हुए नहीं देख सकता। उनकी शर्त मान ली गई। लोगों को आरी, छैनी, हथौड़ी की आवाजें आती रहीं। 

जैसे ही कमरा खोला गया तो बूढ़ा व्यक्ति गायब था और उसमें 3 अधूरी ‍मूर्तियां मिली पड़ी मिलीं। भगवान नीलमाधव और उनके भाई के छोटे-छोटे हाथ बने थे, लेकिन उनकी टांगें नहीं, जबकि सुभद्रा के हाथ-पांव बनाए ही नहीं गए थे। राजा ने इसे भगवान की इच्छा मानकर इन्हीं अधूरी मूर्तियों को स्थापित कर दिया। तब से लेकर आज तक तीनों भाई बहन इसी रूप में विद्यमान हैं।

राजा इंद्रदयुम्न की रानी गुंडिचा अपने को रोक नहीं पाई। वह दरवाजे के पास गई तो उसे कोई आवाज सुनाई नहीं दी। वह घबरा गई। उसे लगा बूढ़ा कारीगर मर गया है। उसने राजा को इसकी सूचना दी। अंदर से कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही थी तो राजा को भी ऐसा ही लगा। सभी शर्तों और चेतावनियों को दरकिनार करते हुए राजा ने कमरे का दरवाजा खोलने का आदेश दिया।

जगन्नाथ मंदिर का इतिहास

वर्तमान में जो मंदिर है वह 7वीं सदी में बनवाया था। हालांकि इस मंदिर का निर्माण ईसा पूर्व 2 में भी हुआ था। यहां स्थित मंदिर 3 बार टूट चुका है। 1174 ईस्वी में ओडिसा शासक अनंग भीमदेव ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। मुख्‍य मंदिर के आसपास लगभग 30 छोटे-बड़े मंदिर स्थापित हैं।

जगन्नाथ पूजा करने से लाभ

इस वर्ष भगवान जगन्नाथ की पूजा का 146 व उत्सव मनाया जा रहा है। ऐसा माना जाता है कि भगवान जगन्नाथ जी के मंदिर जाने और उनकी पूजा करने से शुभ सौभाग्य की प्राप्ति होती है एवं भगवान की साक्षात कृपा साधक पर बनी रहती है। जगन्नाथ जी अपने भक्तों के दुखों को देख नहीं पाते हैं इसलिए वे पूजा करने पर तत्काल अपने भक्त की दुख को दूर करते हैं और प्रसन्न होते है।

जगन्नाथ जी की यात्रा का उचित समय

पुरी में यूं तो जगन्नाथ यात्रा निकलने का समय जून माह में होता है, परंतु तब यहां पर बहुत भीड़ होती है। यदि आप पुरी क्षेत्र में घूमना चाहते हैं तो यहां पर अक्टूबर से मार्च के बीच का समय सबसे अच्छा होता है। पुरी रेलवे स्टेशन से जगन्नाथ मंदिर की दूरी करीब 2 किलोमीटर है।

भारत के पूर्व में बंगाल की खाड़ी के पूर्वी छोर पर बसी पवित्र नगरी पुरी उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर से थोड़ी दूरी पर है। आज का उड़ीसा प्राचीनकाल में उत्कल प्रदेश के नाम से जाना जाता था। यहां देश की समृद्ध बंदरगाहें थीं, जहां जावा, सुमात्रा, इंडोनेशिया, थाईलैंड और अन्य कई देशों का इन्हीं बंदरगाह के रास्ते व्यापार होता था।

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