एक देवरानी-जेठानी थी। जेठानी अमीर थी। उसका परिवार भी बड़ा और पूरा-भरा था देवरानी गरीब थी। इतनी गरीब कि जेठानी की सेवा-टहल करके गुजारा करती थी। जो कुछ चूनी-चोकर मिल जाता उसे अपनी झोपड़ी में आकर पका कर खा लेती। फूटे घड़े से पानी पीकर टूटी चारपाई पर सो जाती। सुबह उठकर फिर जेठानी की सेवा करने चली जाती।
साल भर का त्योहार आया। देवरानी भूखी-प्यासी जेठानी की टहल करती रही। रात को जब आने लगी तो और दिनों की तरह चूनी-चोकर भी नहीं दिया। खाली हाथ झोपड़ी में आई। खेत से बथुआ तोड़ लाई। थोड़े से चावल के कन ढूँढ़कर इकट्ठे किये। कन के लड्डू बनाये, बथुआ बनाकर रख लिया। रात को सकट माता आई। टटिया की ओर खड़ी होकर बोली-ब्रह्मणी, खोलो किवाड़ा। देवरानी बोली-चली आओ माता किवाड़े कहाँ हैं। भीतर आते ही सकट माता ने कहा बड़ी भूख लगी है। देवरानी ने कहा माता जो कुछ दिया है खाओ। कन के लड्डू और बथुआ के धोंधा आगे रख दिए।

जब सकट माता छक कर खा चुकीं तो बोलीं पानी तो पिला, देवरानी फूटी गगरी ले आई। पानी पीकर सकट माता ने सोने की इच्छा की। उसने टूटी खाट बाता दी। थोड़ी देर सोने के बाद सकट माता को टट्टी लगी। उन्होंने पूछा टट्टी कहाँ जाऊँ। देवरानी ने कहा माता सारा घर लीपा-पुता है, जहाँ चाहो बैठ जाओ। सारे घर में उन्होंने टट्टी ही टट्टी कर दी फिर भी अभी पूरी तरह निपट नहीं पाई। पूछा अब कहाँ जाऊँ। देवरानी ने कहा अब मेरे सिर पर करो। उन्होंने उसके सिर से पाँव तक टट्टी से नहला दिया और चली गई। सुबह जब देवरानी उठी तो सारी झोपड़ी कंचनमये हो गई। चारो तरफ सोना ही सोना बिखरा पड़ा था। जल्दी-जल्दी बटोर कर रखने लगी पर सोना चुकता ही नहीं था और वह रखते-रखते थक गई।
इधर जब समय से देवरानी नहीं पहुँची तो जेठानी बहुत बिगड़ने लगी। जेठानी बोली कल त्योहार था सारा काम पड़ा है और देवरानी जी कहा अभी पता नहीं है। उसने अपने लड़के को भेजा और कहा जाकर फौरन बुला लाओ। लड़के ने जो खबर दी तो जेठानी का जी धक से रह गया। दौड़ी-दौड़ी पहुँची देखा चारो तरफ सोना ही सोना बिखरा पड़ा है। देवरानी से पूछा किसको घूसा, किसको मूसा ? देवरानी सहज भाव से बोली न किसी को घूसा न मूसा। यह सब सकट माता की कृपा है। जेठानी ने पूछा ऐसी क्या सेवा की तूने जो सकट माता प्रसन्न हो गई। देवरानी बोली मैंने तो कुछ नहीं किया। केवल कन के लड्डू और बथुवा के घोंधा दिये थे खाने को। इस प्रकार उसने सब कुछ बता दिया। जेठानी घर आई और गरीबों की तरह रहने लगी। साल भर बाद जब सकट माता का त्योहार आया तो देवरानी की भाँति कनक के लड्डू बनाये और बथुआ के धोंधा बनाये। फूटी गगरी और टूटी चारपाई रख दी। और सकट माता की राह देखने लगी। रात में सकट माता ने दरवाजा खटखटाया। जेठानी ने कहा माता किवाड़े कहाँ हैं टटिया खोल आ जाओ। सकट माता ने जो पिछले साल देवरानी के साथ किया था वही सब किया। जेठानी ने कहा माता जो कुछ है खाओ पियो तुमसे कुछ छिपा तो नहीं है। सकट माता ने खाया-पिया और टाँग फैलाकर सोई और आधी रात को घर तथा जेठानी को टट्टी से नहला दिया और माता चली गई। सुबह हुई लड़के-बच्चो ने देखा चारो तरफ गन्दगी ही गन्दगी फैली है। जेठानी भी गन्दगी से नहाई निकली, चलना कठिन था। सारा घर बदबू से भर गया। उन्होंने कहा तुमने यहा क्या किया ? जेठानी ने खिसियाकर देवरानी को बुलाया, देवरानी आई। जेठानी ने बड़े ताने से कहा तुमने जो कहा था वह कुछ न हुआ। देवरानी ने कहा तुमने तो बहन गरीबी का नाटक किया था। तुम्हारे पास तो सब कुछ भरा था इसी से सकट माता अप्रसन्न हुई। मेरी गरीबी में उन्हें दया आ गई और सब कुछ दें दिया। तुमने तो मेरी नकल की थी इसी से ऐसा हुआ है।
इस प्रकार से जो व्यक्ति भी माता सकट की पूजा सच्चे मन से करता है माता उसे अपना आशीर्वाद प्रदान करती है। माता सकट की पूजा में माता से झूठ नहीं बोलना चाहिए और सच्चे हृदय से उनका ध्यान करते हुए इसकी पूजा करनी चाहिए।