महाराणा प्रताप सिंह ने जम्मू कश्मीर पर 1885 से 1925 तक शासन किया था। वह अपनी प्रजा के दुख- दर्द जानने के लिए वेश बदलकर घूमा करते थे। वह एक दिन घूमते घूमते किसी तालाब के पास पहुंचे। वहां उन्होंने एक युवक को लेटा हुआ देखा। बुखार से उसका शरीर तप रहा था। महाराज के पूछने पर उसने बताया मैं अपनी पत्नी को लिवाने जम्मू जा रहा हूं। मैं लक्ष्मी मेहतरानी जमाई हूं।
राजा ने उसे घोड़े पर बैठ जाने को कहा ,पर वह इतना कमजोर हो चुका था कि घोड़े पर चढ़ नहीं सका। तब महाराज ने उसे अपने कंधे पर उठाकर घोड़े पर चढ़ा दिया और स्वयं घोड़े की लगाम पकड़कर पैदल चलने लगे। राज्य में पहुंचते ही खबर फैल गई। वह राजा के चरणों में गिरकर अपने दामाद के अपराध के लिए क्षमा मांगने लगी।
महाराज ने दामाद को घोड़े पर से स्वयं अपनी गोद में लेकर नीचे उतारा। अपनी सास को इस तरह डरा सहमा देखकर युवक भी परेशान हो गया। महाराजा ने लक्ष्मी देवी को आश्वस्त करते हुए कहा घबराओ नहीं तुम्हारे दामाद ने कोई अपराध नहीं किया है। सुनकर सारे दरबारी हैरान थे। महाराज ने कहा देखो लक्ष्मी देवी मैं राजा होने के साथ एक इंसान भी हूं। मानवता के कारण किसी के भी काम आना मेरा धर्म है। यदि आज मैं आपके दामाद के काम नहीं आता तो मैं मनुष्य होने के अपने धर्म से विमुख हो जाता हूं।
हमारी सामाजिक परंपरा के हिसाब से किसी एक परिवार का दामाद सबका दामाद होता है। इस तरह यह मेरा भी दामाद हुआ ना!”महाराज के उधर विचार जानकर लक्ष्मी देवी का सर श्रद्धा से झुक गया।