जैन धर्म अनादि अनंत और शाश्वत धर्म है यह बात आज की युग में सभी जानते हैं इस युग में इसके प्रथम प्रवर्तक अर्थात तीर्थंकर भगवान आदि देव माने जाते हैं। जैन धर्म में तीन बड़े त्यौहार विशेष तौर पर मनाया जाते हैं।
जैन परंपरा में पर्युषण और दशलक्षण महापर्व त्याग, संयम और आत्मचिंतन का पर्व है। यह ‘अहिंसा परमो धर्मः’ के सिद्धांत पर आधारित है, जो हमें ‘जियो और जीने दो’ का संदेश देता है।
पर्व का नाम आते ही हमारे मन में रंग-बिरंगे उत्सव, मिठाइयों और मेलों का चित्र उभर आता है। लेकिन जैन परंपरा में पर्युषण और दशलक्षण महापर्व का अर्थ कुछ और ही है। यह पर्व भोग-विलास नहीं, बल्कि त्याग, संयम और आत्मचिंतन का अवसर है। पर्युषण शब्द का अर्थ है करीब आना। यानी आत्मा के अलंकार अहिंसा, सत्य और विनम्रता जैसे गुणों के करीब आने का सुअवसर। यह पर्व ‘अहिंसा परमो धर्मः’ के सिद्धांत को जीने का अवसर है और हमें ‘जियो और जीने दो’ का संदेश देता है।
इन दिनों साधक अपने मन के नकारात्मक विचारों का नाश करने का संकल्प लेते हैं, ताकि विकारों और दुष्प्रभावों पर नियंत्रण पा सकें। इससे जीवन में शांति और पवित्रता का संचार होता है। दशलक्षण पर्व के दौरान 10 धर्मों- उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव (कोमलता), उत्तम आर्जव (सरलता), उत्तम शौच (स्वच्छता), उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन (अपरिग्रह) और उत्तम ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है। यही कारण है कि इस पर्व का जुड़ाव किसी व्यक्ति विशेष से न होकर आत्मा के गुणों से है।

यह पर्व हमें सिखाता है कि बाहरी दुनिया के मोहजाल में उलझने के बजाय हम भीतर की ओर झांकें। भौतिकवादी जीवन में इच्छाओं को सीमित करना, कुंठाओं से निपटना और चिंताओं का शमन करना ही सुखी और शांत जीवन का मार्ग है। धर्म क्षमा से शुरू होता है। चाहे कैसी भी परिस्थिति हो, मन को स्थिर रखकर क्रोध न करना ही क्षमा है। क्रोध के शमन होते ही अहंकार दम तोड़ देता है। जैसे ही क्रोध और अहंकार मिटते हैं, मनुष्य सरल और निश्छल हो जाता है। परिणामस्वरूप उसके स्वभाव में विनम्रता, प्रेम और कोमलता का प्रवाह होने लगता है।
जब हृदय इन आत्मिक गुना से भर उठता है तो लोग की जगह शौच धर्म यानी पवित्रता का वास हो जाता है।
इच्छाओं और वासनाओं के क्षय के बाद सांसारिक मोह घटता है और त्याग की प्रवृत्ति जन्म लेती है। यही त्याग आगे आकिंचन यानी सहजता और निर्लिप्तता का मार्ग प्रशस्त करता है। पहले के चार धर्म – क्षमा, मार्दव, आर्जव और शौच हमारे भीतर क्रोध, मान, माया और लोभ को शांत करते हैं। सत्य धर्म आत्मबल को बढ़ाता है और संयम अनुशासन सिखाता है। तप धर्म इंद्रियों और मन पर नियंत्रण देता है, जबकि त्याग जीवन में सहिष्णुता और उदारता बढ़ाता है। आकिंचन आसक्ति और मोह का शमन करता है, वहीं ब्रह्मचर्य आत्मबल और आत्मनिर्भरता प्रदान करता है।