बात उन दिनों की है जब आचार्य चाणक्य तक्षशिला में अपने शिष्यों को पढ़ाया करते थे। उन्होंने एक बार शिष्यों के व्यावहारिक ज्ञान की परीक्षा लेनी चाहिए।उन्होंने आदेश दिया कि गुरुकुल की साफ सफाई के लिए बेंत की टोकरी में पानी भरकर लाये। गुरु का आदेश पाकर शिष्यों का दिमाग चकरा गया। सोने वालों की बेंत की टोकरियों में पानी कैसे भरा जा सकेगा। उसे टोकरी में तो पानी रुकेगा ही नहीं, यह करना तो असंभव है। लेकिन गुरु का आदेश है तो इसे मानना ही पड़ेगा। बेंत की टोकरिया लेकर सभी नदी के तट पर पहुंच गए। जैसे ही वे सब नदी का पानी टोकरी में भरते पूरा पानी टोकरियों के छेद से निकल जाता और बह जाता। सभी शिष्य परेशान हो चुके थे और थक्कर गुरुकुल वापस लौट आए। किंतु उन सभी शिष्य में से एक शिष्य वही नदी के तट पर रुक रहा। क्योंकि उसे अपने गुरु पर पूरा विश्वास था वह सोचने लगा कि गुरु जी ने कुछ सोच कर या आदेश दिया होगा मैं बार-बार टोकरी में पानी भरने का प्रयास करता और हर बार टोकरी से पानी निकल जाता और वापस नदी में चला जाता। लेकिन उसने हार नहीं मानी वह फिर उसे टोकरी में पानी भरने लगता है धीरे-धीरे करके सुबह से शाम हो जाती है वह प्रयास करता रहता है आखिर अचानक उसने देखा की टोकरी में पानी रुक गया है अब अपनी टोकरी से बाहर नहीं निकल रहा पहले उसे समझ नहीं आया किया चमत्कार कैसे हुआ लेकिन गौर करने पर समझ गया की बार-बार पानी डालने से टोकरी की बेंत फूल गई और आपस में चिपक गई थी। इससे उसके बीच के सुराख बंद हो गए। उसकी खुशी का कोई ठिकाना नारा उसने टोकरी में पानी भरा और गुरु के सामने रख दिया चाणक्य ने उसकी पीठ थपथपाई और उन्होंने उसको अपने करीब बुलाकर कहा मैंने तुम्हें एक कठिन कार्य दिया था जो केवल धैर्य से ही पूरा हो सकता था या केवल एक ने पूरा किया है। इस परीक्षा से शिष्यों को समझ में आया कि धैर्य के बल पर कठिन से कठिन कार्य भी पूर्ण किए जा सकते हैं।
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