देवउठनी एकादशी, जिसे प्रबोधिनी एकादशी भी कहा जाता है, कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को मनाई जाती है। यह दिन भगवान विष्णु के चार महीने के योगनिद्रा से जागने का प्रतीक है।
चार महीने पहले देवशयनी एकादशी (आषाढ़ शुक्ल एकादशी) के दिन भगवान विष्णु क्षीरसागर में योगनिद्रा में चले जाते हैं, और इन चार महीनों के दौरान सभी शुभ विवाह, संस्कार और मांगलिक कार्य वर्जित रहते हैं।
जब भगवान विष्णु देवउठनी एकादशी के दिन जागते हैं, तो पुनः शुभ कार्यों की शुरुआत मानी जाती है।
देवउठनी एकादशी की कथा
एक समय की बात है—सृष्टि के पालनहार भगवान विष्णु ने असुरों के अत्याचार से थककर चार महीने विश्राम करने का निर्णय लिया। उन्होंने लक्ष्मी जी से कहा,
> “हे देवी! मैं चार माह तक क्षीरसागर में योगनिद्रा में रहूंगा। इस अवधि में कोई भी मांगलिक कार्य न किया जाए।”
लक्ष्मी जी ने आज्ञा स्वीकार की। भगवान विष्णु आषाढ़ शुक्ल एकादशी के दिन शेषनाग की शैय्या पर शयन करने चले गए।
चार महीने बीत गए। कार्तिक शुक्ल एकादशी को भगवान विष्णु के जागरण का समय आया।
इस दिन प्रातःकाल भक्तगण भगवान विष्णु की पूजा कर, शंख, चक्र, गदा और पद्म से उनका स्मरण करते हुए कहते हैं —

> “उठो देवदेवा जगदीश्वर, संसार के पालनहार।
तुम जागो प्रभु, लोक में मंगल कार्य प्रारंभ हों।”
भगवान विष्णु प्रसन्न होकर भक्तों को आशीर्वाद देते हैं और कहते हैं —
> “जो भक्त मेरी इस एकादशी का व्रत करता है, उसे मेरे समान पुण्य प्राप्त होता है। उसके सभी पाप नष्ट होते हैं और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।”
इस दिन के मुख्य कार्य
भगवान विष्णु और माता तुलसी की पूजा की जाती है।
तुलसी विवाह का विशेष महत्व है — यह दिन तुलसी और शालिग्राम (विष्णु स्वरूप) के विवाह का प्रतीक है।
घर में दीप जलाकर “ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय” का जाप किया जाता है।
रातभर भजन-कीर्तन और जागरण किया जाता है।
देवउठनी एकादशी का महत्व
इस दिन से शुभ कार्यों की पुनः शुरुआत होती है।
विवाह, गृहप्रवेश, नामकरण आदि मांगलिक कार्य प्रारंभ किए जाते हैं।
यह दिन पुण्यदायी और मोक्ष प्रदान करने वाला माना गया है।

 
									 
					
