ऋषि पंचमी व्रत भाद्रपद मास (भादों) शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को किया जाता है। यह तिथि गणेश चतुर्थी के अगले दिन आती है। इस व्रत का उल्लेख प्राचीन पुराणों जैसे गरुड़ पुराण, स्कंद पुराण, भागवत पुराण आदि में मिलता है। यह परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है और आज भी महिलाएँ एवं पुरुष दोनों ही इस व्रत को श्रद्धा से करते हैं।
ऋषि पंचमी व्रत क्यों किया जाता है?
1. मान्यता है कि अशुद्धि, अनजाने में हुए दोष, मासिक धर्म काल में हुई त्रुटियों के प्रायश्चित के लिए यह व्रत किया जाता है।
2. यह व्रत सप्तऋषियों (कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, वशिष्ठ, गौतम, जमदग्नि, विश्वामित्र) की पूजा-अर्चना का पर्व है।
3. इस दिन स्त्रियाँ विशेष रूप से व्रत करती हैं ताकि पापों से मुक्ति और शारीरिक-मानसिक शुद्धि प्राप्त हो सके।
4. मान्यता है कि इस व्रत से पूर्वजों की कृपा प्राप्त होती है और परिवार में सुख-समृद्धि आती है।
ऋषि पंचमी व्रत का महत्व
इस दिन व्रत रखने से कष्ट, पाप और दोषों का नाश होता है।
यह व्रत आध्यात्मिक शुद्धि और पुण्य प्रदान करता है।
माना जाता है कि ऋषि पंचमी व्रत से 72 प्रकार के पाप मिट जाते हैं और मनुष्य को मोक्ष का मार्ग मिलता है।
यह व्रत ऋषियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का पर्व है, जिन्होंने वेद और शास्त्रों की रचना करके मानव जीवन को दिशा दी।
ऋषि पंचमी व्रत विधि
1. प्रातःकाल स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
2. भूमि पर गोबर या गेरू से मंडल बनाकर उस पर सप्तऋषियों का चित्र/प्रतिमा स्थापित करें।
3. कलश स्थापित कर, उसमें जल, सुपारी, चावल आदि डालकर पूजन करें।
4. ।सप्तऋषियों (कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, वशिष्ठ, गौतम, जमदग्नि, विश्वामित्र) की प्रतिमा या चित्र स्थापित करें।सप्तऋषियों को धूप, दीप, चंदन, पुष्प, फल, अक्षत, पंचामृत आदि अर्पित करें
5. व्रत कथा सुनें और अंत में आरती करें।
6. फलाहार या निर्जला व्रत कर संध्या समय व्रत का समापन करें।
ऋषि पंचमी व्रत मंत्र
पूजन के समय यह मंत्र बोले जा सकते हैं—
“ॐ कश्यपाय नमः।
ॐ अत्रये नमः।
ॐ भारद्वाजाय नमः।
ॐ वशिष्ठाय नमः।
ॐ गौतमाय नमः।
ॐ जमदग्नये नमः।
ॐ विश्वामित्राय नमः।”
इन मंत्रों से सप्तऋषियों का आह्वान और पूजन किया जाता है।
ऋषि पंचमी व्रत आरती
(सरल रूप में सप्तऋषि आरती)
“ॐ जय सप्तऋषि हरि की आरती।
ऋषियों की महिमा निराली।
कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, वशिष्ठ नाम उजियारा।
गौतम, जमदग्नि, विश्वामित्र— सब पूजें नर-नारी।।
ॐ जय सप्तऋषि हरि की आरती।।”
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✍️ ऋषि पंचमी व्रत का महत्व
ऋषि पंचमी : आत्मशुद्धि और ऋषियों के प्रति कृतज्ञता का पर्व
भाद्रपद शुक्ल पंचमी को मनाया जाने वाला ऋषि पंचमी व्रत भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान रखता है। यह व्रत मुख्य रूप से महिलाओं द्वारा किया जाता है, लेकिन पुरुष भी इसे कर सकते हैं। इसका उद्देश्य शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शुद्धि प्राप्त करना है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, स्त्रियाँ मासिक धर्म काल में हुई त्रुटियों तथा अनजाने में हुए पापों के प्रायश्चित हेतु इस व्रत को करती हैं। इस दिन सप्तऋषियों की पूजा की जाती है, जिन्होंने वेद, उपनिषद और शास्त्रों की रचना कर मानव जीवन को दिशा दी।
यह व्रत न केवल पापों से मुक्ति दिलाता है, बल्कि परिवार में सुख-शांति, समृद्धि और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग भी प्रशस्त करता है। ऋषि पंचमी हमें यह स्मरण कराता है कि ऋषियों के ज्ञान और तपस्या के बिना सभ्यता अधूरी होती।
अतः ऋषि पंचमी व्रत केवल धार्मिक अनुष्ठान ही नहीं, बल्कि आभार, प्रायश्चित और आत्मशुद्धि का महान पर्व है।
पंचमी तिथि
पंचमी तिथि 27 अगस्त दोपहर 3:44 PM से प्रारंभ होकर,
28 अगस्त शाम 5:56 PM तक जारी रहती है।
शुभ मुहूर्त – 28 अगस्त, सुबह 11:05 से दोपहर 1:39 तक
ऋषि पंचमी की व्रत कथा

सतयुग में विदर्भ नगरी में श्येनजित नामक राजा हुए थे। वह ऋषियों के समान थे। उन्हीं के राज में एक कृषक सुमित्र था। उसकी पत्नी जयश्री अत्यंत पतिव्रता थी।
एक समय वर्षा ऋतु में जब उसकी पत्नी खेती के कामों में लगी हुई थी, तो वह रजस्वला हो गई। उसको रजस्वला होने का पता लग गया फिर भी वह घर के कामों में लगी रही। कुछ समय बाद वह दोनों स्त्री-पुरुष अपनी-अपनी आयु भोगकर मृत्यु को प्राप्त हुए। जयश्री तो कुतिया बनीं और सुमित्र को रजस्वला स्त्री के सम्पर्क में आने के कारण बैल की योनी मिली, क्योंकि ऋतु दोष के अतिरिक्त इन दोनों का कोई अपराध नहीं था।
इसी कारण इन दोनों को अपने पूर्व जन्म का समस्त विवरण याद रहा। वे दोनों कुतिया और बैल के रूप में उसी नगर में अपने बेटे सुचित्र के यहां रहने लगे। धर्मात्मा सुचित्र अपने अतिथियों का पूर्ण सत्कार करता था। अपने पिता के श्राद्ध के दिन उसने अपने घर ब्राह्मणों को भोजन के लिए नाना प्रकार के भोजन बनवाए।
जब उसकी स्त्री किसी काम के लिए रसोई से बाहर गई हुई थी तो एक सर्प ने रसोई की खीर के बर्तन में विष वमन कर दिया। कुतिया के रूप में सुचित्र की मां कुछ दूर से सब देख रही थी। पुत्र की बहू के आने पर उसने पुत्र को ब्रह्म हत्या के पाप से बचाने के लिए उस बर्तन में मुंह डाल दिया। सुचित्र की पत्नी चन्द्रवती से कुतिया का यह कृत्य देखा न गया और उसने चूल्हे में से जलती लकड़ी निकाल कर कुतिया को मारी
बेचारी कुतिया मार खाकर इधर-उधर भागने लगी। चौके में जो झूठन आदि बची रहती थी, वह सब सुचित्र की बहू उस कुतिया को डाल देती थी, लेकिन क्रोध के कारण उसने वह भी बाहर फिकवा दी। सब खाने का सामान फिकवा कर बर्तन साफ करके दोबारा खाना बना कर ब्राह्मणों को खिलाया।
रात्रि के समय भूख से व्याकुल होकर वह कुतिया बैल के रूप में रह रहे अपने पूर्व पति के पास आकर बोली, हे स्वामी! आज तो मैं भूख से मरी जा रही हूं। वैसे तो मेरा पुत्र मुझे रोज खाने को देता था, लेकिन आज मुझे कुछ नहीं मिला। सांप के विष वाले खीर के बर्तन को अनेक ब्रह्म हत्या के भय से छूकर उनके न खाने योग्य कर दिया था। इसी कारण उसकी बहू ने मुझे मारा और खाने को कुछ भी नहीं दिया।
तब वह बैल बोला, हे भद्रे! तेरे पापों के कारण तो मैं भी इस योनी में आ पड़ा हूं और आज बोझा ढ़ोते-ढ़ोते मेरी कमर टूट गई है। आज मैं भी खेत में दिनभर हल में जुता रहा। मेरे पुत्र ने आज मुझे भी भोजन नहीं दिया और मुझे मारा भी बहुत। मुझे इस प्रकार कष्ट देकर उसने इस श्राद्ध को निष्फल कर दिया।
अपने माता-पिता की इन बातों को सुचित्र सुन रहा था, उसने उसी समय दोनों को भरपेट भोजन कराया और फिर उनके दुख से दुखी होकर वन की ओर चला गया। वन में जाकर ऋषियों से पूछा कि मेरे माता-पिता किन कर्मों के कारण इन नीची योनियों को प्राप्त हुए हैं और अब किस प्रकार से इनको छुटकारा मिल सकता है। तब सर्वतमा ऋषि बोले तुम इनकी मुक्ति के लिए पत्नीसहित ऋषि पंचमी का व्रत धारण करो तथा उसका फल अपने माता-पिता को दो
भाद्रपद महीने की शुक्ल पंचमी को मुख शुद्ध करके मध्याह्न में नदी के पवित्र जल में स्नान करना और नए रेशमी कपड़े पहनकर अरूधन्ती सहित सप्तऋषियों का पूजन करना। इतना सुनकर सुचित्र अपने घर लौट आया और अपनी पत्नीसहित विधि-विधान से पूजन व्रत किया। उसके पुण्य से माता-पिता दोनों पशु योनियों से छूट गए। इसलिए जो महिला श्रद्धापूर्वक ऋषि पंचमी का व्रत करती है, वह समस्त सांसारिक सुखों को भोग कर बैकुंठ को जाती है।