यदि देशहित में मरना पड़े मुझे सहस्रों बार भी,
तो भी न मैं इस कष्ट को निज ध्यान में लाऊं कभी।
हे ईश! भारतवर्ष में शत बार मेरा जन्म हो,
कारण सदा ही मृत्यु का देशोपकारक कर्म हो।”
– “रामप्रसाद बिस्मिल”
भारत एक वीरों का देश है यह बात आप अकसर सुनते रहते हैं लेकिन जब हम स्वतंत्रता संग्राम के उन सभी क्रांतिकारियों को याद करते हैं तो हमारी स्मृति में एक नाम सबसे पहले आता है वह है पंडित रामप्रसाद बिस्मिल (Ram Prasad Bismil) का। स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर देने वाले वीरों में रामप्रसाद बिस्मिल का एक विशिष्ट स्थान है।
राम प्रसाद बिस्मिल के जीवन का संक्षिप्त परिचय ( Ram Prasad bismil Bio/Wiki
उपनाम – ‘बिस्मिल’, ‘राम’, ‘अज्ञात’
जन्मस्थल – शाहजहाँपुर, ब्रिटिश भारत
माता – मूलमती
पिता – मुरलीधर
धर्म – हिन्दू (ब्राह्मण)
आन्दोलन – भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम
प्रमुख संगठन – हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन
उपजीविका – कवि, साहित्यकार
राष्ट्रीयता – भारतीय
स्मारक – अमर शहीद पं॰ राम प्रसाद बिस्मिल उद्यान, ग्रेटर नोएड
संग्रहालय – शाहजहाँपुर
राम प्रसाद बिस्मिल का प्रारंभिक जीवन और शिक्षा-दीक्षा
11 जून 1897 को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर शहर के खिरनीबाग मुहल्ले में जन्मे रामप्रसाद अपने पिता मुरलीधर और माता मूलमती की दूसरी सन्तान थे। उनसे पूर्व एक पुत्र पैदा होते ही मर चुका था। बालक की जन्म-कुण्डली व दोनों हाथ की दसो उँगलियों में चक्र के निशान देखकर एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी – “यदि इस बालक का जीवन किसी प्रकार बचा रहा, यद्यपि सम्भावना बहुत कम है, तो इसे चक्रवर्ती सम्राट बनने से दुनिया की कोई भी ताकत रोक नहीं पायेगी।”
माता-पिता दोनों ही सिंह राशि के थे और बच्चा भी सिंह-शावक जैसा लगता था अतः ज्योतिषियों ने बहुत सोच विचार कर तुला राशि के नामाक्षर ‘र’ पर नाम रखने का सुझाव दिया। माता-पिता दोनों ही राम के आराधक थे अतः बालक का नाम रामप्रसाद रखा गया। माँ मूलमती तो सदैव यही कहती थीं कि उन्हें राम जैसा पुत्र चाहिये था। बालक को घर में सभी लोग प्यार से राम कहकर ही पुकारते थे।
रामप्रसाद के जन्म से पूर्व उनकी माँ एक पुत्र खो चुकी थीं अतः जादू-टोने का सहारा भी लिया गया। एक खरगोश लाया गया और नवजात शिशु के ऊपर से उतार कर आँगन में छोड़ दिया गया, खरगोश ने आँगन के दो-चार चक्कर लगाये और फौरन मर गया। इसका उल्लेख राम प्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में किया है। मुरलीधर के कुल ९ सन्तानें हुईं जिनमें पाँच पुत्रियाँ एवं चार पुत्र थे। आगे चलकर दो पुत्रियों एवं दो पुत्रों का भी देहान्त हो गया।
बाल्यकाल से ही रामप्रसाद की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। उसका मन खेलने में अधिक किन्तु पढ़ने में कम लगता था। इसके कारण उनके पिताजी तो उसकी खूब पिटायी लगाते परन्तु माँ हमेशा प्यार से यही समझाती कि “बेटा राम! ये बहुत बुरी बात है मत किया करो।” इस प्यार भरी सीख का उसके मन पर कहीं न कहीं प्रभाव अवश्य पड़ता। उसके पिता ने पहले हिन्दी का अक्षर-बोध कराया किन्तु उ से उल्लू न तो उन्होंने पढ़ना सीखा और न ही लिखकर दिखाया।
उन दिनों हिन्दी की वर्णमाला में उ से उल्लू ही पढ़ाया जाता था। इस बात का वह विरोध करते थे और बदले में पिता की मार भी खाते थे। हार कर उसे उर्दू के स्कूल में भर्ती करा दिया गया। शायद यही प्राकृतिक गुण रामप्रसाद को एक क्रान्तिकारी बना पाये। लगभग १४ वर्ष की आयु में रामप्रसाद को अपने पिता की सन्दूकची से रुपये चुराने की लत पड़ गयी। चुराये गये रुपयों से उन्होंने उपन्यास आदि खरीदकर पढ़ना प्रारम्भ कर दिया एवं सिगरेट पीने व भाँग चढ़ाने की आदत भी पड़ गयी थी।
कुल मिलाकर रुपये – चोरी का सिलसिला चलता रहा और रामप्रसाद अब उर्दू के प्रेमरस से परिपूर्ण उपन्यासों व गजलों की पुस्तकें पढ़ने का आदी हो गया था। संयोग से एक दिन भाँग के नशे में होने के कारण रामप्रसाद को चोरी करते हुए पकड़ लिया गया। खूब पिटाई हुई, उपन्यास व अन्य किताबें फाड़ डाली गयीं लेकिन रुपये चुराने की आदत नहीं छूटी। आगे चलकर जब उनको थोड़ी समझ आयी तभी वे इस दुर्गुण से मुक्त हो सके।
रामप्रसाद ने उर्दू मिडिल की परीक्षा में उत्तीर्ण न होने पर अंग्रेजी पढ़ना प्रारम्भ किया। साथ ही पड़ोस के एक पुजारी ने रामप्रसाद को पूजा-पाठ की विधि का ज्ञान करवा दिया। पुजारी एक सुलझे हुए विद्वान व्यक्ति थे, उनके व्यक्तित्व का प्रभाव रामप्रसाद के जीवन पर भी पड़ा। पुजारी के उपदेशों के कारण रामप्रसाद पूजा-पाठ के साथ ब्रह्मचर्य का पालन करने लगा, पुजारी की देखा-देखी रामप्रसाद ने व्यायाम करना भी प्रारम्भ कर दिया।
किशोरावस्था की जितनी भी कुभावनाएँ एवं बुरी आदतें मन में थीं वे भी छूट गयीं। केवल सिगरेट पीने की लत नहीं छूटी,परन्तु वह भी कुछ दिनों बाद विद्यालय के एक सहपाठी सुशीलचन्द्र सेन की सत्संगति से छूट गयी। सिगरेट छूटने के बाद रामप्रसाद का मन पढ़ाई में लगने लगा। बहुत शीघ्र ही वह अंग्रेजी के पाँचवें दर्ज़े में आ गए।
रामप्रसाद में अप्रत्याशित परिवर्तन हो चुका था। शरीर सुन्दर व बलिष्ठ हो गया था। नियमित पूजा-पाठ में समय व्यतीत होने लगा था। इसी दौरान वह मन्दिर में आने वाले मुंशी इन्द्रजीत से उसका सम्पर्क हुआ। मुंशी इन्द्रजीत ने रामप्रसाद को आर्य समाज के सम्बन्ध में बताया और स्वामी दयानन्द सरस्वती की लिखी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने को दी। सत्यार्थ प्रकाश के गम्भीर अध्ययन से रामप्रसाद के जीवन पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ा।
राम प्रसाद बिस्मिल का राजनीतिक जीवन में प्रवेश
राम प्रसाद बिस्मिल स्वामी सोमदेव से मिलने के बाद उनसे खासा प्रभावित हुए और उन पर आर्य समाज का भी बहुत ज्यादा प्रभाव देखने को मिला। बिस्मिल हिंदू-मुस्लिम एकता में काफी विश्वास रखते थे। अशफाक उल्ला खां और राम प्रसाद बिस्मिल की दोस्ती ने हिंदू-मुस्लिम एकता की अनोखी मिसाल पेश की। आज भी दोनों की दोस्ती की मिसाल दी जाती है।
राम प्रसाद बिस्मिल को हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के आदर्शों ने अपनी ओर आकर्षित किया और इससे जुड़ने के बाद उनकी मुलाकात भगत सिंह, सुखदेव, अशफाक उल्ला खां, चंद्रशेखर आजाद जैसे कई स्वसंत्रता सेनानियों से हुई, फिर साल 1923 में राम प्रसाद बिस्मिल ने सचिन नाथ सान्याल और डॉ. जादुगोपाल मुखर्जी के साथ हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के संविधान का मसौदा तैयार किया,
अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जंग का ऐलान करते हुए हथियार खरीदने के इरादे से राम प्रसाद बिस्मिल ने अशफाक उल्ला खां के साथ काकोरी कांड की साजिश रची।
राम प्रसाद बिस्मिल अन्य लोगों द्वारा किया गया काकोरी कांड
9 अगस्त 1925 को ब्रिटिश सरकार का खजाना लूटने की इस ऐतिहासिक घटना को अंजाम दिया।
काकोरी कांड के बाद ब्रिटिश सरकार ने बिस्मिल को गिरफ्तार कर लिया और इस घटना को अंजाम देने के लिए उन्हें सजा-ए-मौत की सजा सुनाई गई।
राम प्रसाद बिस्मिल को 19 दिसंबर 1927 को गोरखपुर की जेल में फांसी दे दी गई।
हालांकि भारत माता के लिए अपना बलिदान देने से पहले जेल में रहकर बिस्मिल ने कई क्रांतिवीरों के जीवन पर पुस्तकें लिखी। उन्होंने आत्मकथा भी लिखी जिसे उन्होंने अपनी फांसी के तीन दिन पहले तक लिखा।
मैनपुरी षडयंत्र और काकोरी कांड को अंजाम देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले राम प्रसाद बिस्मिल ने जेल में अपनी 200 पन्नों की आत्मकथा में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की पोल खोलकर रख दी थी, इसलिए उनके द्वारा लिखी गई पुस्तक का प्रसार अंग्रेजों ने बैन कर दिया।
राम प्रसाद बिस्मिल ने शस्त्र के लिए किया था काकोरी कांड
चौरीचौरा कांड के बाद अचानक असहयोग आंदोलन वापस ले लिया गया। इसके कारण देश में फैली निराशा को देखकर उनका कांग्रेस के आजादी के अहिंसक प्रयत्नों से मोहभंग हो गया। फिर तो नवयुवकों की क्रांतिकारी पार्टी का अपना सपना साकार करने के क्रम में बिस्मिल ने चंद्रशेखर ‘आजाद’ के नेतृत्व वाले हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के साथ गोरों के सशस्त्र प्रतिरोध का नया दौर आरंभ किया लेकिन सवाल था कि इस प्रतिरोध के लिए शस्त्र खरीदने को धन कहां से आये?
इसी का जवाब देते हुए उन्होंने नौ अगस्त, 1925 को अपने साथियों के साथ एक ऑपरेशन में काकोरी में ट्रेन से ले जाया जा रहा सरकारी खजाना लूटा तो थोड़े ही दिनों बाद 26 सितंबर, 1925 को पकड़ लिए गए और लखनऊ की सेंट्रल जेल की 11 नंबर की बैरक में रखे गए। मुकदमे के नाटक के बाद अशफाक उल्लाह खान, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और रौशन सिंह के साथ उन्हें फांसी की सजा सुना दी गई।
राम प्रसाद बिस्मिल का एकादशी के दिन जन्म और इसी दिन बलिदान
बिस्मिल बेहद धार्मिक प्रवृत्ति के थे। नियमित पूजा-पाठ उनके जीवन का हिस्सा था। उनका जन्म एकादशी के दिन हुआ था और एकादशी के ही दिन वे बलिदान हुए। यह महज संयोग नहीं था बल्कि उनकी धार्मिक प्रवृत्ति की बड़ी वजह भी थी।
राम प्रसाद बिस्मिल के अद्भुत छवि की खास पहचान-
बिस्मिल को जिस वक्त फांसी दी गई थी, उस समय उनकी उम्र महज 30 साल थी। बिस्मिल ने फांसी का फंदा अपने गले में डालने से पहले भी ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’ कविता पढ़ी थी। उनके बलिदान ने पूरे हिंदुस्तान को हिलाकर रख दिया था। अपनी मातृभूमि के लिए हंसते-हंसते अपने प्राणों को न्योछावर करने वाले राम प्रसाद बिस्मिल की कुर्बानी और उनके जज्बे को आज भी लोग सलाम करते हैं।
रामप्रसाद बिस्मिल की जीवन का अंतिम पल
यह काकोरी कांड में गिरफ्तार होने के बाद की बात है. क्रांतिकारी राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ पर मुकदमा दायर हो चुका था। बिस्मिल ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध क्रांति जारी रखना चाहते थे। इसके लिए उनका जेल से बाहर आना आवश्यक था उन्हें जेल से छुड़ा लेने के प्रयासों में देरी देख बिस्मिल ने जेल के भीतर से एक ग़ज़ल लिख कर उलाहना भेजा था। मजिस्ट्रेट ने इसे इश्क़ का पैगाम समझ कर बाहर भेजने की अनुमति दे दी थी। उनकी यह अंतिम रचना थी :
“मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या,
दिल की बर्बादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या?
मिट गईं जब सब उम्मीदें मिट गए जब सब ख़याल,
उस घड़ी गर नामावर लेकर पयाम आया तो क्या?
ऐ दिले-नादान मिट जा तू भी कू-ए-यार में ,
फिर मेरी नाकामियों के बाद काम आया तो क्या?
काश! अपनी जिंदगी में हम वो मंजर देखते,
यूँ सरे-तुर्बत कोई महशर-खिराम आया तो क्या?
आख़िरी शब दीद के काबिल थी ‘बिस्मिल’ की तड़प ,
सुब्ह-दम कोई अगर बाला-ए-बाम आया तो क्या?”
इस रचना के माध्यम से खुद को छुड़ाने की कोशिशों को तेज करने का संदेश इस उलाहने के साथ भेजा गया था कि देरी से हुए प्रयास किस काम आएंगे?।
वे अपने अन्य साथियों की तरह आजादी की तमन्ना में जिये और फिर उस चाहत को पूरा करने की दिशा में प्राण न्योछावर कर दिए।
शहादत के इतने सालों बाद आज जब उनकी जयंती पर याद करते हैं तो कुछ सवाल सोचने पर विवश कर देते हैं।हमे ठहर कर विचार करना होगा कि राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ जैसे अनगिनत शहीदों ने जिस आजादी की उम्मीद और कल्पना की थी उसे पा कर हम अभी कहां हैं? हम सभी के लिए उनका समर्पण अविस्मरणीय है जिन्होंने हमें स्वतंत्रता दिला कर आजादी की सांस लेने के लायक बनाया।
राम प्रसाद बिस्मिल और ऐसे ही अन्य क्रांतिकारियों को हमारा शत-शत नमन।