भारत की आजादी के बाद 1971 में पहली बार गर्भवती महिलाओं के लिए इस प्रकार के कानून लागू किए तो यह दुनिया के सबसे प्रगतिशील कानूनों में से एक था।पचास साल में एक संशोधन के बाद, देश अधिकार-आधारित गर्भपात देखभाल के लिए संघर्ष कर रहा है।
क्या है भारत का कानून
सभी जरूरतमंदों महिलाओ को गर्भपात देखभाल प्रदान करने के लिए भारत सरकार ने हाल ही में मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी यानी एमटीपी अधिनियम 1971 में संशोधन किया है।
नए कानून का मतलब है कि कई श्रेणियों के लिए गर्भपात की ऊपरी समय सीमा को बीस हफ्ते से बढ़ाकर 24 हफ्ते कर दिया गया है।इन श्रेणियों में बलात्कार पीड़ित, अनाचार की शिकार और अन्य कमजोर महिलाओं को रखा गया है। दंड संहिता के तहत गर्भपात कराना अपराध है, लेकिन एमटीपी के तहत ऐसे मामलों में अपवादों को अनुमति है
अन्य लोग भी इसका फायदा उठा सकते हैं यदि उनके पास 20 सप्ताह से पहले गर्भपात के लिए डॉक्टर की सहमति है।गर्भावस्था की यह सीमा मेडिकल बोर्ड द्वारा बताई गई भ्रूण संबंधी बीमारियों के मामलों पर लागू नहीं होती है।
भारत सरकार से संबंधित कंप्रेहेंसिव अबॉर्शन केयर में अतिरिक्त आयुक्त सुमिता घोष कहती हैं, “यह भारत में महिलाओं की सामूहिक इच्छा की जीत है।संशोधनों ने सुरक्षित और कानूनी गर्भपात सेवाओं तक महिलाओं के दायरे और पहुंच में वृद्धि की है।” लेकिन प्रजनन अधिकार संगठनों का कहना है कि कानून सही दिशा में पहला कदम है।
‘ राइट टू अबॉर्शन’ किस प्रकार का अधिकार है?
भारत में गर्भपात वास्तविक अर्थों में कानूनी अधिकार नहीं है। कोई महिला डॉक्टर के पास जाकर यह नहीं कह सकती कि वह गर्भपात करवाना चाहती है। सुरक्षित कानूनी गर्भपात उसी स्थिति में हो सकता है अगर डॉक्टर कहे कि ऐसा करना ज़रूरी है।

- शांतिलाल शाह समिति (1964) की सिफारिशों पर आधारित गर्भ का चिकित्सकीय समापन कानून 1971 कुछ आधारों को परिभाषित करता है जिन पर गर्भपात की अनुमति दी जा सकती है। ये आधार हैं-
- धारा 3 की उप-धारा (2), उप-धारा (4) के प्रावधानों के अनुसार कोई पंजीकृत डॉक्टर गर्भपात कर सकता है। यदि –
a. गर्भावस्था की अवधि 12 सप्ताह से अधिक की नही है
b. गर्भावस्था की अवधि 12 सप्ताह से अधिक है लेकिन 20 सप्ताह से अधिक नहीं है तो गर्भ उसी स्थिति में हो सकता है जब दो डॉक्टर ऐसा मानते हैं किः
1. गर्भपात नहीं किया गया तो गर्भवती महिला का जीवन खतरे में पड़ सकता है, या
2. अगर गर्भवती महिला के शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर खतरा पहुँचने की आशंका हो, या
3. अगर गर्भाधान का कारण बलात्कार हो, या
4. बच्चों की संख्या को सीमित रखने के उद्देश्य से वैवाहिक दंपति ने जो गर्भ निरोधक हो या तरीका अपनाया हो वह विफल हो जाए, या
5. इस बात का पर्याप्त खतरा हो कि अगर बच्चे का जन्म होता है तो वह शारीरिक या मानसिक विकारों का शिकार हो सकता है जिससे उसके गंभीर रूप से विकलांग होने की आशंका है, या
6. गर्भवती महिला के स्वास्थ्य को उसके वास्तविक या बिल्कुल आप-पास के वातावरण के कारण खतरा हो। यह कानून 20 सप्ताह के बाद गर्भपात की अनुमति नहीं देता।
भारत में कानून महिलाओं की अभिव्यक्ति के अनुसार सही माना जाता है क्योंकि यदि कोई महिला ऐसी स्थिति से गुजर रही है जिसमें वह मां नहीं बनना चाहती है तो उसे अवश्य का अधिकार दिया जाना चाहिए ।उदाहरण (केस)
नीता शर्मा (बदला हुआ नाम) एक लड़के के साथ प्रेम करती है उसके साथ संबंध बनाती है। जब नेता प्रेगनेंट होती है तो वह लड़का उसे छोड़ कर चला जाता है और दूसरी जगह शादी कर लेता है ऐसी स्थिति में नीता बच्चे को जन्म नहीं देना चाहती है जो इस दुनिया में मात्र कलंक बन के रह जाए। इस कारण वह अबॉर्शन करवाना चाहती है। भारत में इस प्रकार की स्थिति में महिलाओं को गर्भपात कराने का अधिकार दिया गया है। इस नियम का प्रयोग करते हैं नीता अबॉर्शन करा लेती है। वह कहती है कि मैं धन्य हूं कि मैं भारत जैसे देश में हूं जहां पर ऐसे कानून है जो महिलाओं के अस्मिता की रक्षा करते हैं।
निश्चित तौर पर ‘मेडिकल ओपिनियन’ ‘गुड फेथ’ में दिया जाना चाहिये। गुड फेथ शब्द को इस कानून में परिभाषित नहीं किया गया है लेकिन भारतीय दंड संहिता की धारा 52 गुड फेथ को पर्याप्त सावधानी के साथ किये गए कार्य के रूप में परिभाषित करती है
गर्भपात के लिए महिला के साथ किसकी सहमति है जरूरी?
गर्भपात के लिये सहमति
MTPA की धारा 3 (4) यह स्पष्ट करती है कि गर्भपात के लिये किसकी सहमति ज़रूरी होगी।
a. कोई भी युवती जिसकी आयु 18 वर्ष नहीं है या वह 18 वर्ष की तो हो लेकिन मानसिक तौर पर बीमार हो तो गर्भपात के लिये उसके अभिभावक की लिखित सहमति लेनी होगी।
b. कोई भी गर्भपात महिला की सहमति के बगैर नहीं किया जा सकता।
क्या कहता है भारतीय संविधान का अनुच्छेद – 19
संवैधानिक अनुच्छेद 19 के तहत निजता का अधिकार हासिल हुआ है और किसी भी महिला को यह हक दिया गया है कि वह इस बात को तय करे कि गर्भवती बनना है या नही, अथवा अपने गर्भ को कायम रखना है या नहीं। सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) ने 1992 में नीरा माथुर बनाम भारतीय जीवन बीमा निगम मामले में यह निर्णय दिया था कि गर्भ-धारण को निजी रखना, निजता के अधिकार का मामला है।
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